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षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान
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मन:पर्यवज्ञानी के विषय के वर्णन में 'जाणइ' और 'पासइ' इन दो क्रियाओं का प्रयोग हुआ है। यहाँ 'जाणइ' का अर्थ जानना (ज्ञान) और 'पासइ' का अर्थ देखना (दर्शन) किया गया है। मन:पर्यवज्ञान से जानना तो संभव है, लेकिन देखना कैसे संभव है? क्योंकि चक्षु आदि चार दर्शनों में मन:पर्यवदर्शन का उल्लेख नहीं है। इसलिए विद्वानों में 'पासइ' क्रिया के सम्बन्ध में मतभेद है। इस सम्बन्ध में जिनभद्रगणि ने विभिन्न मतान्तरों का उल्लेख किया है - 1. मनःपर्यवज्ञानी अचक्षुदर्शन से देखता है, लेकिन यह मत उचित नहीं है, क्योंकि मन:पर्यवज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है, जबकि अचक्षुदर्शन परोक्ष ज्ञान है। 2. मन:पर्यवज्ञानी अवधिदर्शन से देखता है, यह तर्क संगत नहीं है, क्योंकि मन:पर्यवज्ञानी के नियम से अवधिज्ञान हो, ऐसा उल्लेख आगमों में कहीं भी प्राप्त नहीं होता है एवं बिना अवधिज्ञान के अवधिदर्शन नहीं हो सकता है। 3. कतिपय आचार्यों का मानना है कि जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के विभंगज्ञान होता है और उसके विभंगदर्शन को अवधि दर्शन कहा जाता है उसी प्रकार मन:पर्यवज्ञानी का मनःपर्यवदर्शन भी अवधिदर्शन है, लेकिन यह आगमानुसार नहीं है, क्योंकि भगवती सूत्र में मन:पर्यवज्ञान में दो या तीन दर्शन कहे गये हैं। दो दर्शन हों तो चक्षु-अचक्षुदर्शन तथा तीन दर्शन हों तो चक्षु-अचक्षु और अवधिदर्शन पाये जाते हैं एवं जब अवधि या विभंग ज्ञान होगा तभी अवधिदर्शन होगा। लेकिन मनःपर्यवज्ञानी के अवधिज्ञान हो, यह आवश्यक नहीं है। 4. अवधिसहित मन:पर्यवज्ञान वाला जानता और देखता है, जबकि अवधिरहित मनःपर्यवज्ञान वाला सिर्फ जानता है, लेकिन यह भी उचित नहीं है क्योंकि ऐसा संभव होता तो आगमकार मनःपर्यव के साथ 'जाणइ' 'पासइ' अथवा 'जाणइ' इस प्रकार विकल्प रूप से इन दोनों क्रियाओं का प्रयोग करते, लेकिन आगमों में मनःपर्यवज्ञान के प्रसंग पर सभी जगह इन दोनों क्रियाओं का साथ में ही प्रयोग हुआ है। 5. मन:पर्यवज्ञान साकार उपयोग होने से उसमें दर्शन नहीं होता है, लेकिन मूल टीकाकार ने भी इस मत को स्वीकार नहीं किया है। इस प्रकार उपर्युक्त पांचों मत दोषयुक्त है। इसलिए मन:पर्यवज्ञान में आगमानुसार दर्शन की सिद्धि पश्यत्ता के माध्यम से की गई है।
इस प्रकार उपर्युक्त पांचों मत दोषयुक्त है। इसलिए मनःपर्यवज्ञान में आगमानुसार दर्शन की सिद्धि पश्यत्ता के माध्यम से की गई है।
प्रश्न - मनोलब्धि, मन:पर्यवज्ञान और मन का उपयोग इन तीनों में क्या अन्तर है?
उत्तर - मनोलब्धि उस अवधिज्ञान को कहते हैं जो लोक के एक संख्यातवें भाग एवं पल्योपम के एक संख्यातवें भाग जितने भूत-भविष्य को जानता है। इस अवधिज्ञान के द्वारा अपनी क्षेत्र सीमा में रहे हुए मनोद्रव्यों को जानकर उन जीवों के मनोगत भावों को जान लेता है, वह अवधिज्ञान ही है। मन:पर्यवज्ञान अन्य वर्गणाओं को नहीं जानते हुए अढाई द्वीपवर्ती संज्ञीजीवों के मनोगत भावों को ही जानता है। मनोलब्धि वाला अवधि तो औदारिक वर्गणाओं को एवं विशाल क्षेत्र के जीवों के मनोगत भावों को जान सकता है। किन्तु मन:पर्यवज्ञानी की तो मात्र मनोद्रव्य एवं अढाई द्वीप की ही सीमा है। मनोयोग से जो चिंतन किया जाता है, उसको स्वयं ही जानना यह मन का उपयोग है। तीनों में परस्पर भेद है।
मन:पर्यवज्ञान के सम्बन्ध में विशेष बिन्दु- 1. ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी मनुष्य क्षेत्र में विपुलमति से ढ़ाई अंगुल कम देखता हैं, तो ये अंगलु उत्सेध अंगुल से समझना चाहिये।
2. मन:पर्यवज्ञानी मुनि मन:पर्यवज्ञान की सीमा के भीतर रहने वाले देवों के मन की बात भी जान सकते हैं।
3. मन:पर्यवज्ञान का स्वामी अप्रमत्त संयत होता है, तीर्थंकर भगवन्तों को दीक्षा ग्रहण करते ही मन:पर्यवज्ञान हो जाता है, तत्पश्चात् साधना काल में वे सातवें से छठे और छठे से सातवें गुणस्थान