________________
[442]
विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
विपुलमति मन:पर्यवज्ञान को विशुद्ध विशुद्धतर तो बताया है, लेकिन अप्रतिपाती का उल्लेख नहीं मिलता है। अतः विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी को उसी भव में केवलज्ञान हो, यह आवश्यक नहीं है। इस प्रकार ऋजुमति एवं विपुलमति में स्वामी, प्रमाण, सूक्ष्मता आदि की अपेक्षा से भिन्नता है।
मनःपर्यवज्ञानी के ज्ञेय के सम्बन्ध में दो मत प्राप्त होते हैं - प्रथम मत के अनुसार मन के द्वारा चिन्तित अर्थ के ज्ञान के लिए मन को माध्यम नहीं मानकर सीधा उस अर्थ का प्रत्यक्ष होता है। इस मत का मुख्य रूप से दिगम्बराचार्यों ने समर्थन किया है। मन:पर्यवज्ञानी तीनों कालों के विचार, वाणी और वर्तन को जान सकता है। दूसरा मत जिनभद्रगणि आदि श्वेताम्बराचार्यों का है, जिसके अनुसार मनोगत अर्थ का विचार करने से जो मन की दशा होती है, उस दशा अथवा पर्यायों को मनःपर्यायज्ञानी प्रत्यक्ष जानता है। किन्तु उन दशाओं में जो अर्थ रहा हुआ है, उसको अनुमान से जानता है। उपर्युक्त दोनों मतों में से द्वितीय मत अधिक उचित प्रतीत होता है, इसके दो कारण हैं - 1. भाव मन अरूपी होता है और अरूपी पदार्थों को छद्मस्थ नहीं जान सकता है। लेकिन भाव मन के माध्यम से द्रव्य मन में जो मनोवर्गणा उत्पन्न होती है, वे रूपी होती हैं, जिन्हें छद्मस्थ जान सकता है। 2. मन:पर्यायज्ञान से साक्षात् अर्थ का ज्ञान नहीं होता है, क्योंकि मन:पर्यवज्ञान का विषय रूपी द्रव्य का अनन्तवां भाग है। यदि मन:पर्यायज्ञानी मन के सभी विषयों का साक्षात् ज्ञान कर लेता है तो अरूपी द्रव्य भी उसके विषय हो जाते हैं, जो स्वीकार करना आगम सम्मत नहीं है। अत: यह मन्तव्य उचित है कि मनःपर्यवज्ञानी मन का साक्षात्कार करके उसमें चिन्तित अर्थ को अनुमान से जानता है। ऐसा मानने पर मन के द्वारा सोचे गये मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्यों को जान सकता है, इसकी संगति बैठेंगी।
मन:पर्यवज्ञानी का विषय द्रव्यमन ही होता है, चिन्तन के समय संज्ञी पंचेन्द्रिय के द्रव्यमन में जिन मनोवर्गणा के स्कंधों का निमार्ण होता है, वे पुद्गलमय होने से रूपी होते हैं और इन रूपी स्कंधों (पर्यायों) के आधार पर चिन्तन किये गये घटादि पदार्थ को अनुमान से जान लिया जाता है।
द्रव्यादि की अपेक्षा मनःपर्यवज्ञानी के विषय का उल्लेख इस प्रकार से है - ऋजुमति द्रव्य से अनन्त प्रदेशी स्कंध को जानता देखता है। क्षेत्र से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट नीचे रत्नप्रभा नरक के उपरिम अधस्तन (ऊपरी प्रतर से नीचे) के क्षुल्लक प्रतरों को, ऊर्ध्व लोक में ज्योतिषी के ऊपर के तल को तथा तिरछी दिशा में अढ़ाई अंगुल कम अढाई द्वीप के सन्नी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मन के भावों को जानता देखता है। मनुष्यक्षेत्र में जिनका चिन्तन किया, लेकिन वे पुद्गल मनुष्य क्षेत्र से बाहर चले गये हैं, उनको भी मन:पर्यवज्ञानी नहीं जानता है। गोम्मटसार में मनुष्यक्षेत्र (45 लाख योजन) को चौकोर घनप्रतर प्रमाण माना है, गोलाकार रूप नहीं। लेकिन श्वेताम्बर परम्परा में यह क्षेत्र गोलाकार के रूप में माना गया है। काल से जघन्य उत्कृष्ट पल के असंख्यातवें भाग जितना भूत, भविष्यत् काल जानता देखता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार ऋजुमति का जघन्य विषय दो-तीन भव होते हैं और उत्कृष्ट सात आठ भव होते हैं। विपुलमति का जघन्य विषय आठ-नौ भव होते हैं और उत्कृष्ट पल्य का असंख्यातवां भाग प्रमाण भव है। वह भाव से अनन्त भावों को और सब भावों के अनन्तवें भाग को जानता देखता है। विपुलमति भी इसी तरह है, परन्तु क्षेत्र से ऋजुमति की अपेक्षा प्रत्येक दिशा में अढाई अढाई अंगुल क्षेत्र अधिक द्रव्य क्षेत्र काल भाव को कुछ अधिक विस्तार सहित विशुद्ध व स्पष्ट जानता देखता है। मन:पर्यवज्ञान का विषय उत्सेधांगुल से नापा जाता है।
___ मनःपर्यवज्ञानी बिना चिंतन में आई वस्तु को नहीं जानता है, सैकड़ों योजन दूर रहे हुए किसी ग्राम-नगर आदि को मनःपर्यवज्ञानी नहीं देख सकता है, लेकिन यदि वही ग्राम आदि किसी के मन में स्मृति के रूप में विद्यमान हैं, तब मन:पर्यवज्ञानी उनका साक्षात्कार कर सकते हैं।