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षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान
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मतिज्ञान में तो स्वयं के मन के द्वारा विचार होता है, इसलिए वहाँ मन मुख्य साधन है। जबकि मन:पर्यवज्ञान में दूसरे के मन में स्थित मनोवर्गणा के पुद्गल देखकर वस्तु का अनुमान किया जाता है, जिसमें मन की अपेक्षा मात्र होती है। इसलिए मन:पर्यवज्ञान मतिज्ञान रूप नहीं है। इसी प्रकार अनुमान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं तथा मन:पर्यवज्ञान प्रत्यक्ष है। इसलिए मतिज्ञान इसके समान नहीं होता है। अवधि के बिना मनःपर्यवज्ञान होना संभव है। सिद्धसेन दिवाकर ने अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान को एक ही माना है, लेकिन किसी भी आचार्य ने इनके मत का समर्थन नहीं किया है। स्वामी, विशुद्धि, द्रव्य, विषय, भाव आदि से विभिन्न प्रमाण देकर दोनों में भेद सिद्ध किया गया है।
मन:पर्यवज्ञान प्राप्त करने की योग्यताओं का वर्णन नंदीसूत्र और उसकी टीकाओं में प्राप्त होता है, अतः जो जीव क्रमश: मनुष्य, गर्भजमनुष्य यावत् ऋद्धिप्राप्त संयत आदि नौ योग्यता को पूर्ण करता है, वही मनःपर्यवज्ञान का अधिकारी होता है। अतः मन:पर्यायज्ञान चारित्रवान् साधुओं को ही उत्पन्न होता है। स्त्रियों (साध्वियों) को भी मन:पर्यवज्ञान हो सकता है। मनःपर्यवज्ञान जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक अवस्थित रहता है।
मन:पर्यवज्ञान गुणप्रत्यय ही होता है अर्थात् विशिष्ट क्षयोपशम से ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। अवधिज्ञान के काल और क्षेत्र की विचित्रता से अनेक भेद होते हैं, वैसे अनेक भेद मन:पर्यवज्ञान के नहीं होते हैं, इसके मुख्य रूप से दो भेद होते हैं - ऋजुमति - जो सामान्य रूप से मनोद्रव्य को जानता है, वह ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान है। जैसेकि अमुक व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया है। विपुलमति - विशेषग्राहिणी मति विपुलमति है। अमुक व्यक्ति ने घड़े का चिन्तन किया है। वह घड़ा सोने का बना हुआ है इत्यादि द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि को जानना है।
श्वेताम्बर परम्परा के आगम और ग्रंथों में ऋजुमति और विपुलमति के प्रभेदों का उल्लेख नहीं है। लेकिन दिगम्बर परम्परा में इनका उल्लेख प्राप्त होता है। ऋजुमति के विषय की अपेक्षा से तीन भेद होते हैं - 1. ऋजुमनोगत, 2. ऋजुवचनगत और 3. ऋजुकायगत। यहाँ ऋजु का अर्थ सरल है। जैसे किसी ने सरल मन से किसी पदार्थ का स्पष्ट विचार किया, किसी ने स्पष्ट वाणी से विचार व्यक्त किया
और काया से कोई स्पष्ट क्रिया की और उसे भूल गया, अब किसी ने ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी से पूछा कि इसने अमुक समय में क्या चिंतन किया था? क्या बोला था? और काया से क्या प्रवृत्ति की थी? या नहीं भी पूछा जाय तो भी वह स्पष्ट रूप से उपर्युक्त सभी क्रियाओं को प्रत्यक्ष देखकर बता देगें।
विपुलमति के छह भेद हैं, यथा 1. ऋजुमनोगत, 2. ऋजुवचनगत, 3. ऋजुकायगत, 4. अनृजुमनस्कृतार्थज्ञ, 5. अनृजुवाक्कृतार्थज्ञ और 6. अनृजुकायकृतार्थज्ञ । यहाँ विपुल का अर्थ अनिर्वर्तित
और कुटिल होता है। ऋजुमतिज्ञान की शक्ति ऋजु विचारादि तक मर्यादित है, जबकि विपुलमति ऋजु (सरल) और अनृजु (वक्र) दोनों प्रकार के विचारादि को जान सकता है।
दिगम्बर परम्परा में ऋजुमति और विपुलमति के भेद अपेक्षा विशेष हैं, क्योंकि मन:पर्यवज्ञानी दूसरे के मन की पर्यायों को स्वयं के ज्ञान के लिए जानेगा, या किसी के पूछने पर अथवा बोध देने की दृष्टि से दूसरे व्यक्ति को कहेगा, कोई व्यक्ति उसके कथन को नहीं समझ पायेगा तो मन:पर्यवज्ञानी उसको कायिक चेष्टाओं से समझायेगा। अतः ऋजुमति और विपुलमति के भेद उचित ही प्रतीत होते हैं।
ऋजुमति से विपुलमति की तुलना करते हुए उमास्वाति ने विपुलमति को विशुद्ध बताया है। टीकाकार अप्रतिपाती अवधिज्ञान के समान ही विपुलमति को अप्रतिपाती मानते हुए केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्वतक उसकी उपस्थिति स्वीकार करते हैं। लेकिन भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में वर्णित सुमंगल अनगार का अवधिज्ञान अप्रतिपाती सिद्ध होता है, फिर भी सुमंगल अनगार को उस भव में केवलज्ञान नहीं होता है। अतः यहाँ टीकाकारों द्वारा मान्य अप्रतिपाती का अर्थ घटित नहीं होता है। आगमों में भी