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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
उत्तर - यद्यपि ऋजुमति सामान्यग्राही है, परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि केवल सामान्यग्राही ही है अर्थात् दर्शन रूप है, ऐसा नहीं मानना। क्योंकि यहाँ ज्ञान का अधिकार चल रहा है, इसलिए सामान्यग्राही कहने का इतना ही आशय है कि वह ऋजुमति विशेषों की तो जानता ही है, परंतु विपुलमति जितने विशेषों को जानता है उतने विशेषों को अपेक्षा से अल्पतर जानता और देखता है अर्थात् विपुलमति की अपेक्षा से ऋजुमति सामान्य अर्थात् अल्पविशेषता वाला ज्ञान है। इसको समझाने के लिए घडे का दृष्टांत दिया गया है। यही बात मलयगिरि ने कही है - "यत: सामान्यरूपमपि मनोद्रव्याकारप्रतिनियतमेव पश्यति। 217 यहाँ प्रतिनियत को देखा है, वह ज्ञानरूप है दर्शनरूप नहीं है, इसीलिए दर्शनोपयोग (चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन) चार प्रकार का बताया गया है। पांच प्रकार का नहीं, कारण कि मन:पर्यवदर्शन परमार्थतः (सिद्धांत में) संभव नहीं है, क्योंकि ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी मनोद्रव्य से परिणमित मनोवर्गणा के अनंत स्कंधों को मनःपर्यवज्ञानावरण के क्षयोपशम की पटुता के कारण साक्षात् जानता-देखता है, परंतु जीवों द्वारा चिन्तित घटादि रूप परिमाणों को अन्यथानुपत्ति से जानता है। इसलिए यहाँ 'पासइ' (देखता है) का भी प्रयोग किया है। इसका कारण यह है कि जिसे विपुलमतिज्ञान है, उसे ऋजुमति ज्ञान भी हो, ऐसा होना नितान्त असंभव है। क्योंकि इन दोनों के स्वामी एक ही नहीं, अपितु भिन्न-भिन्न होते हैं।
आवश्यक वृति में मलयगिरि कहते हैं कि मन:पर्यवज्ञान में क्षयोपशम की पटुता होती है, अतः वह मनोद्रव्य के पर्यायों को ही ग्रहण करता हुआ उत्पन्न होता है। पर्याय विशेष होते हैं। विशेष का ग्राहक ज्ञान है, इसलिए मन:पर्यव ज्ञान ही होता है, मन:पर्यव दर्शन नहीं होता है। 18
अर्वाचीन विद्वान् पं. कन्हैयालाल लोढा का मत है कि मन:पर्यव ज्ञान से मन की पर्यायें जानी जाती हैं, परन्तु चिंतनीय पदार्थ नहीं जाना जा सकता। मानसिक पर्यायें विकल्प युक्त होती हैं, अत: मन:पर्यव-दर्शन नहीं होता है, कारण कि दर्शन निर्विकल्प होता है। 19 मनःपर्यवज्ञान के संस्थान
दिगम्बर परम्परानुसार षट्खण्डागम आदि ग्रंथों में अवधिज्ञानावरणीय के क्षयोपश से आत्मप्रदेशों के श्रीवत्स, कलश, शंख आदि संस्थान होते हैं, उसी प्रकार मनःपर्यव ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमगत आत्म-प्रदेशों के संस्थान का कथन क्यों नहीं किया गया है? इसका समाधान है कि मनःपर्यव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने पर विकसित आठ पंखुड़ी युक्त कमल जैसे आकार वाले द्रव्यमन के प्रदेशों का मन:पर्यायज्ञान उत्पन्न होता है, इससे पृथग्भूत इसका संस्थान नहीं होता है220 तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से मनोवर्गणा रूप स्कन्धों द्वारा हृदयस्थान में मन की उत्पत्ति होती है। वह खिले हुए आठ पाँखुड़ी वाले कमल के समान होती है-21 और श्वेताम्बर परम्परा में तो मन की उपस्थिति सम्पूर्ण शरीर में स्वीकृत है, इसलिए मनःपर्यवज्ञान का कोई निश्चित संस्थान नहीं होता है।
समीक्षण अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान में मनःपर्यवज्ञान दूसरा ज्ञान है। मन की पर्याय को जानना अर्थात् ज्ञान करना मनःपर्यवज्ञान है। मन:पर्यवज्ञान के लिए मन:पर्यव, मन:पर्याय और मन:पर्यय इन तीन शब्दों का प्रयोग होता है।
217. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 109
218. मलयगिरि, आवश्यकवृत्ति, पृ. 82 219. बन्धतत्त्व, पृ. 24
220. पटखण्डागम, पुस्तक भाग 13, पृ. 330-332 221. हिदि होदि हु दव्वमणं वियसिय अट्ठच्छदारविंदं वा। अंगोवंगुदयादो मणवग्गणखंददो णियमा।
-गोम्मटसार (जीवकांड), गाथा 443, पृ. 667