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षष्ठ अध्याय
विशेषावश्यकभाष्य में मनः पर्यवज्ञान
5. मनः पर्यवज्ञान साकार उपयोग होने से उसमें दर्शन नहीं होता है कतिपय आचार्यों का मानना है कि मनः पर्यवज्ञान का अतिविशिष्ट क्षयोपशम होने से वह साकार (ज्ञान रूप से ही या विशेष को ग्रहण करने वाला होने से) उपयोग रूप में ही उत्पन्न होता है, जिससे वह मात्र ज्ञान होने से जानता है, लेकिन अवधिज्ञान और केवलज्ञान की तरह इसका दर्शन नहीं होने से यह नहीं देखता है। प्रश्न तो मनः पर्यवज्ञानी देखता है, ऐसा कैसे कह सकते हैं?
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उत्तर- मनः पर्यवज्ञान प्रत्यक्ष होने से मनः पर्यवज्ञानी मनः पर्यवज्ञान से देखता है क्योंकि प्रत्यक्ष होने से विशेष रूप (प्रकार) से देखता है। ऊपर से (सामान्य रूप से) मनः पर्यवज्ञानी देखता है और साकार होने से जानता है। इसलिए दर्शन नहीं होने पर भी मनः पर्यवज्ञानी देखता और जानता है, ऐसा कह सकते हैं।
इस कथन को मूलटीकाकार ने सही नहीं माना है मनः पर्यवज्ञान साकार उपयोग रूप होने से उससे दर्शन नहीं होता है और प्रत्यक्ष होने से " जो वस्तु देखी जाय, वह दर्शन है।" इस प्रकार की जो वचन युक्ति कही है वह उचित नहीं है, क्योंकि यह ज्ञान साकार होने से इसमें दर्शन का निषेध किया गया है। फिर भी "जिसको देखा जाय वह दर्शन है" इस व्युत्पत्ति से दर्शन की प्राप्ति होती है। फिर भी " जानता है" इस पद से मनः पर्यवज्ञान का साकार पना ही सिद्ध होता है और " देखता है" यह शब्द दर्शन में रूढ होने से इसका अनाकारपना सिद्ध किया गया है। इस प्रकार परस्पर विरोध की प्राप्ति होने से यह अभिप्राय अयोग्य है । 213
यही बात मलयगिरि भी कहते हैं कि विशिष्टतर मनोद्रव्य के ज्ञान की अपेक्षा से ही सामान्य रूप मनोद्रव्य के ज्ञान को व्यवहार में दर्शन कहा गया है। वास्तव में वह भी ज्ञान ही है। क्योंकि सामान्य रूप होने पर भी वह प्रतिनियत मनोद्रव्य को ही देखता है। प्रतिनियत (विशेष) को ग्रहण करने वाला ज्ञान ही होता है, दर्शन नहीं । इसलिए आगम में भी चार ही दर्शन बताये हैं, पांच नहीं, इसलिए मनः पर्यवदर्शन नहीं होता है PH
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6. आगमानुसार मत
उपर्युक्त मत आगम के अनुसार नहीं होने से वे ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। प्रज्ञापनासूत्र के तीसवें पश्यत्ता 2 15 पद में मनः पर्यवज्ञान को अच्छी प्रकार से देखने वाला होने से साकार उपयोग विषयक देखने रूप पश्यत्ता कहा गया है। इससे मनः पर्यवज्ञानी 'देखता है' ऐसा कहते हैं, क्योंकि जब मन:पर्यवज्ञानी मनः पर्यवज्ञान में उपयोग लगाता है, तब साकार उपयोग ही होता है, अनाकार उपयोग नहीं। उस साकार उपयोग के ही यहाँ दो भेद किए गये हैं - सामान्य और विशेष ये दोनों | ही भेद ऋजुमति और विपुलमति के होते हैं । यहाँ सामान्य का अर्थ विशिष्ट साकार उपयोग और विशेष का अर्थ है विशिष्टतर साकार उपयोग। मनः पर्यवज्ञान से जानने और देखने की दोनों क्रियाएं होती हैं, यही मत आगमानुसार है, इस लिए निर्दोष है (H
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प्रश्न यहाँ पर ऋजुमति को सामान्य अर्थ को ग्रहण करने वाला और विपुलमति को विशेषग्रहण करने वाला बताया है जब ऋजुमति सामान्यग्राही है तब तो वह दर्शन रूप ही हुआ, क्योंकि सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन होता है तो फिर ऋजुमति को ज्ञान क्यों कहा?
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212. अन्ये त्वाहुः साकारोपयोगान्तः पातित्वान्न तद्दर्शनम्, दृश्यते चानेन प्रत्यक्षत्वादवधिवदिति । एतदपि न दर्शनम्, दृश्यते चानेनविरुद्धमुभयधमन्वयाभावाद्वा न किञ्चिदिति विशेषावश्यक भाष्य, स्वोपज्ञवृत्ति गाथा 817
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213. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 821 की टीका
214 मलयगिरि, दीवृति पू. 109
215. इसका वर्णन चतुर्थ अध्याय ( श्रुतज्ञान) पृ. 290-291 पर कर दिया गया है। 216. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 822