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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
उत्तर - चक्षु आदि चार प्रकार के दर्शन के अलावा पांचवां मनःपर्यवदर्शन आगमों में निरूपित नहीं है । आगम में कहा है कि "कइविहे णं भंते! दंसणे पण्णते? गोयमा! चउव्विहे, तं जहा - चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिदंसणे, केवलदसणे" अर्थात् "हे भगवन्! कितने प्रकार के दर्शन कहे गये हैं। हे गौतम! चार प्रकार के दर्शन कहे गये हैं - चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन।" इस प्रकार से मनःपर्यवज्ञान के दर्शन का अभाव होने से मन:पर्यवज्ञानी मन:पर्यव दर्शन से देखता है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है 09 3. विभंग दर्शन की तरह मनःपर्यव दर्शन भी अवधि दर्शन है
कुछेक आचार्यों का मानना है कि जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के विभंगज्ञान होता है, उसके विभंगदर्शन भी होता है, जिसको अवधि दर्शन कहा जाता है। उसी प्रकार मनःपर्यवज्ञानी का मनःपर्यवदर्शन, अवधिदर्शन ही है अर्थात् मनःपर्यवदर्शन का दूसरा नाम अवधिदर्शन है। जैसे चार दर्शनों के अतरिक्त पांचवां दर्शन विभंगदर्शन नहीं बता कर उसका समावेश अवधिदर्शन में कर लिया गया है। वैसे ही मन:पर्यवदर्शन को भी अवधिदर्शन में समाहित कर लिया गया है और उसी से मन:पर्यवज्ञानी देखता है। लेकिन ऐसा जो कहते हैं उनका कहना भी आगम के विपरीत है। क्योंकि भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 2 (आशीविष नामक उद्देशक) में मन:पर्यवज्ञान में दो या तीन दर्शन कहे गये हैं। दो दर्शन हो तो चक्षु-अचक्षुदर्शन तथा तीन दर्शन हो तो चक्षु-अचक्षु और अवधिदर्शन पाये जाते हैं। क्योंकि जिसमें मति-श्रुत और मनःपर्यवज्ञान हो, उसके चक्षु-अचक्षु दो दर्शन होते हैं
और जिसमें अवधि सहित चार ज्ञान हों, उसके अवधि सहित तीन दर्शन होते हैं। इसलिए मन:पर्यवज्ञान वाले के नियम से अवधिदर्शन होता है, ऐसा कहना आगम विरुद्ध है। यदि मन:पर्यव ज्ञान वाले के अवधिदर्शन होता है, तो मति-श्रुत और मनःपर्यवज्ञान इन तीन ज्ञान वालों के भी निश्चय से तीन दर्शन होना चाहिए, न कि दो दर्शन। लेकिन इनमें दो ही दर्शन बताये हैं। जबकि विभंगज्ञानी के नियम से तीन दर्शन बताये हैं। इसलिए विभंगदर्शन की तरह मन:पर्यवदर्शन का अवधिदर्शन में समावेश हो गया है, ऐसा मानना गलत है। साथ ही आगमों में जहाँ भी विभंगज्ञान के साथ दर्शन का वर्णन है तो वहाँ उसे अवधिदर्शन बताया गया है, न कि विभंगदर्शन। क्योंकि दर्शन तो सामान्य रूप होता है इसलिए इसमें दृष्टि (सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि) का फर्क नहीं पड़ता है। दृष्टि का फर्क ज्ञान में पड़ता है। 4. अवधिसहित मनःपर्यवज्ञान वाला जानता और देखता है, जबकि अवधिरहित मनःपर्यवज्ञान वाला सिर्फ जानता है
कुछेक आचार्यों का मानना है कि जो मनःपर्यवज्ञानी अवधिज्ञान सहित चार ज्ञान वाले होते हैं, वे मन:पर्यवज्ञान से जानते हैं और अवधिदर्शन से देखते हैं और जो मन:पर्यवज्ञानी अवधिज्ञान रहित तीन ज्ञान वाले होते हैं, वे मन:पर्यवज्ञान से मात्र जानते हैं, लेकिन अवधिदर्शन नहीं होने से देखते नहीं हैं, इसलिए मन:पर्यवज्ञानी एक अपेक्षा अर्थात् संभव मात्र से ही जानते और देखते हैं। ऐसा नंदीसूत्र की टीका में बताया गया है। यदि ऐसा संभव होता तो आगमकार मनःपर्यव के साथ 'जाणइ' 'पासइ' अथवा 'जाणइ' इस प्रकार विकल्प रूप से इन दोनों क्रियाओं का प्रयोग करते, लेकिन ऐसा वर्णन प्राप्त नहीं होता है। जहाँ भी प्रयोग हुआ है वहाँ इन दोनों क्रियाओं का साथ में ही प्रयोग हुआ है। इसलिए यह मत भी उचित नहीं है।
210. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 818-819
209. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 817 211. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 820 की टीका का भावार्थ