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षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान
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उत्तर - यदि परोक्ष अर्थ में अचक्षुदर्शन की प्रवृत्ति मान सकते हैं, तो प्रत्यक्ष अर्थ में तो विशेष तरीके से माननी चाहिए, क्योंकि चक्षुदर्शन से जानने योग्य घट आदि रूप प्रत्यक्ष अर्थ उस (घटादि) सम्बन्धी अचक्षुदर्शन में विशेष अनुग्राहक (ग्रहण करने वाला) है। इस कारण यहाँ मनोद्रव्य रूप अर्थ को प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करते हुए मन:पर्यवज्ञान प्रत्यक्ष से युक्त है और अचक्षुदर्शन तो परोक्ष अर्थ को ग्रहण करता है इसलिए उसमें (अचक्षुदर्शन) प्रत्यक्षपना नहीं होते हुए भी मनःपर्यवज्ञान का अनुग्राहक होता है।
प्रश्न - यदि ऐसा स्वीकार करेंगे तो मनःपर्यवज्ञान को प्रत्यक्ष मानने में विरोध आएगा।
उत्तर - जिस प्रकार अवधिज्ञान वाले चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन से परोक्ष अर्थ को प्रत्यक्ष देखते हुए उसके प्रत्यक्षपने में कोई विरोध नहीं आता है। इसी प्रकार मन:पर्यवज्ञानी मन:पर्यवज्ञान से मनोद्रव्य की पर्यायों को साक्षात् रूप से जानते हैं और अचक्षुदर्शन से परोक्ष रूप से देखते हैं।06
नंदी हारिभद्रीय वृत्ति में भी ऐसा उल्लेख मिलता है। मन:पर्यव दर्शन स्वतंत्र रूप से नहीं बताया गया है, तब ‘पश्यति' का प्रयोग क्यों? अचक्षुदर्शन नामक मनरूप नोइन्द्रिय के द्वारा यह दर्शन का विषय बनता है, इसलिए दर्शन सम्भव है। कोई व्यक्ति घट का चिंतन कर रहा है। मन:पर्यवज्ञानी मनोद्रव्यों को साक्षात् जानता है और मानस अचक्षुदर्शन से वह देखता है। इसलिए सूत्रपाठ में 'पासइ' का प्रयोग हुआ है। एक ही मन:पर्यवज्ञानी प्रमाता के मन:पर्यवज्ञान के बाद ही मानस अचक्षुदर्शन होता है। वह मनःपर्यवज्ञान से मनोद्रव्य का जानता है तथा मानस अचक्षुदर्शन से उन्हीं को देखता है। वह विशेष उपयोग की अपेक्षा से जानता है, सामान्य अर्थोपयोग की अपेक्षा से देखता है। लेकिन भाष्याकार ने इसका निषेध गाथा 815 किया है।
सो य किर अचक्खुद्दसणेण पासइ जहा सुयन्नाणी।
जुत्तं सुए परोक्खे, न उ पच्चक्खे मणोनाणे।।815।। 2. मनःपर्यवज्ञानी अवधिदर्शन से देखता है ___ कुछेक आचार्यों का ऐसा मानना है कि मन:पर्यवज्ञानी, मन:पर्यवज्ञान से जानता है और अवधिदर्शन से देखता है। लेकिन यह उचित प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि मनःपर्यवज्ञानी के अवधिदर्शन होता है अर्थात् मनःपर्यवज्ञानी के नियम से अवधिज्ञान और अवधिदर्शन होता है, ऐसा उल्लेख आगमों में कहीं भी प्राप्त नहीं होता है। इसके विपरीत आगमों में उल्लेख प्राप्त होता है कि जीवों में अवधिज्ञान के बिना मति, श्रुत और मन:पर्यवज्ञान ये तीन ज्ञान भी हो सकते हैं। जैसेकि "हे भगवन्! मन:पर्यवज्ञान लब्धि वाले-जीव ज्ञानी होते हैं कि अज्ञानी? हे गौतम! वे ज्ञानी होते हैं, अज्ञानी नहीं होते हैं। उनमें से कुछेक तीन ज्ञान वाले होते हैं, तो कुछेक चार ज्ञान वाले होते हैं। जो तीन ज्ञान वाले होते हैं, उनके मति, श्रुत और मन:पर्यवज्ञान होते हैं और जो चार ज्ञान वाले होते हैं, उनके मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यवज्ञान होते हैं।''208 इस प्रमाण से मन:पर्यवज्ञानी के अवधिज्ञान
और अवधिदर्शन की नियमा नहीं है। इसलिए जो ऐसा कहते हैं कि मनःपर्यवज्ञानी अवधिदर्शन से देखता है, तो उनका कथन उचित्त नहीं है।
प्रश्न - यदि ऐसा मानना अयुक्त है तो इसकी जगह मन:पर्यवज्ञान का भी दर्शन मान लिया जाए तब मनःपर्यवदर्शन से ही मन:पर्यवज्ञानी देखता है, ऐसा समाधान मिल जायेगा। 206. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 815-816 की टीका का भावार्थ 207. नंदीसूत्रम्, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी 5, सन् 1966, पृ. 122 208. युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवतीसूत्र, शतक 8 उ. 2, पृ. 269