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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
श्रुतज्ञान, मति- अज्ञान और श्रुत- अज्ञान से जानना तथा चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन से देखना होता है । अवधिज्ञान और विभंगज्ञान से जानना तथा अवधिदर्शन से देखना माना गया है। इसी प्रकार केवलज्ञान से जानना और केवलदर्शन से देखना मान्य है। लेकिन उपर्युक्त 12 उपयोगों में से मनःपर्यवज्ञान से जानना तो हो जाता है, लेकिन देखने रूप दर्शन नहीं है और सूत्रकार ने मनःपर्यवज्ञान के साथ 'जाणइ' और 'पासइ' इन दोनों क्रियाओं का प्रयोग किया है, तो इसका दर्शन भी होना चाहिए, अतः यहाँ प्रयुक्त 'पासइ' क्रिया के सम्बन्ध में विभिन्न मतान्तर प्राप्त होते हैं, उन्हीं की यहाँ पर चर्चा की जा रही है।
प्रश्न - जैसे अवधिज्ञानी, अवधिज्ञान से जानते हैं और अवधिदर्शन से देखते हैं ? उसी प्रकार मनः पर्यवज्ञानी क्या मनःपर्याय ज्ञान से जानते हैं और मनःपर्याय दर्शन से देखते हैं ?
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उत्तर - नहीं, क्योंकि छद्मस्थ जीवों का उपयोग तथा स्वभाव से मन की पर्यायों की विशेषताओं को जानने की ओर ही लगता है, मन की पर्यायों के अस्तित्व मात्र को जानने की ओर नहीं लगता। अतएव मनः पर्यायज्ञान रूप ही होता है, दर्शन नहीं रूप होता, क्योंकि मनः पर्यवज्ञान विशिष्ट क्षयोपशम के कारण उत्पन्न होता है। इसलिए वस्तु के विशेष स्वरूप को जानता है, सामान्य स्वरूप को नहीं, अतः यह ज्ञानरूप ही होता है, दर्शन रूप नहीं । यह भाष्यकार और टीकाकार का मत है। 204 साथ में ही भाष्यकार ने विशेषावश्यकभाष्य में इस सम्बन्ध में बिना नामोल्लेख के कुछ आचार्यों के मत दिये हैं और उनका खण्डन भी किया है, जो निम्न प्रकार से हैं1. मनः पर्यवज्ञानी अचक्षुदर्शन से देखता है
प्रश्न - विशेषावश्यकभाष्य गाथा में 814 'दव्वमणोपज्जाए जाणइ पासइ' में 'पासइ' शब्द दिया है, अतः मनः पर्यवज्ञान का दर्शन कहने में क्या बाधा है ?
उत्तर - कुछ आचार्यों के मत से श्रुतज्ञानी भी अचक्षुदर्शन से देखते हैं इसका उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य की गाथा 553 में किया गया है कि "उपयोग युक्त श्रुतज्ञानी सभी द्रव्यादि को अचक्षुदर्शन से देखते हैं।" (भाष्यकार ने गाथा 554 में इस मत का का खण्डन किया है ।) 205 इसी प्रकार मन:पर्यवज्ञानी भी अचक्षुदर्शन से देखता है। जैसे कि घटपटादि अर्थ का चिंतन करने वाले व्यक्ति के मनोद्रव्य को मनः पर्यवज्ञानी प्रत्यक्ष से जानता है और उसी द्रव्य को मन से (मन सम्बन्धी) अचक्षुदर्शन से विचार करता है। इसलिए मनः पर्यवज्ञानी, मनः पर्यवज्ञान से जानता है और अचक्षुदर्शन से देखता है। इसी अपेक्षा से देखता है, ऐसा कहा है ।
प्रश्न - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान है । इसीलिए श्रुतज्ञानी परोक्ष से पदार्थ को जानता है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शन भी मतिज्ञान का भेद होने से परोक्ष से ही पदार्थ को जानता है। श्रुतज्ञान के विषयभूत मेरुपर्वत-देवलोक आदि परोक्ष पदार्थों में अचक्षुदर्शन होता है । अतः अचक्षुदर्शन के भी श्रुतज्ञान का आलम्बन होने से दोनों समान विषय वाले हैं। लेकिन अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान के भेद होते हैं। इसलिए मनः पर्यवज्ञान प्रत्यक्ष को विषय करता है। लेकिन उपर्युक्त प्रसंग में परोक्ष अर्थ का विषय करने वाले अचक्षुदर्शन की प्रत्यक्ष अर्थ का विषय करने वाले मनः पर्यवज्ञान में किस प्रकार से प्रवृत्ति होगी, क्योंकि दोनों का विषय भिन्न-भिन्न है ?
204. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 814 की बृहद्वृत्ति का भावार्थ
205. उवउत्तो सुयनाणी, सच्चं दव्वाईं जाणइ जहत्थं । पासइ य केइ सो पुण, तमचक्खुद्दसणेणं ति ।। तेसिमचक्खुदंसणसाण्णाओ कहं न मइनाणी । पासइ, पासइ व कहं सुयनाणी किंकओ भेओ ।।
- विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 553-554