________________
षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान
[435]
को तथा उस वस्तु की लम्बाई-चौड़ाई, गोल आदि संस्थान को, जानना भाव कहलाता है अर्थात् जिस संज्ञी जीव के औदयिक आदि भावों से विविध प्रकार के आकार-प्रकार, विविध रंग-बिरंगे धारण करता है, वे सब मन की पर्यायें है, इनको वह जानता है और देखता है।
मन:पर्यवज्ञानी किसी बाह्य वस्तु को, क्षेत्र को, काल को तथा द्रव्यगत पर्यायों को नहीं जानता, अपितु जब वे किसी के चिन्तन में आ जाते हैं, तब मनोगत भावों को जानता है। जैसे बन्द कमरे में बैठा हुआ व्यक्ति, बाहर होने वाले विशेष समारोह को तथा उसमें भाग लेने वाले पशु-पक्षी, पुरुषस्त्री तथा अन्य वस्तुओं को टेलीविजन के द्वारा प्रत्यक्ष करता है, अन्यथा नहीं, वैसे ही जो मनःपर्यव ज्ञानी है, जो चक्षु इन्द्रिय से परोक्ष है, उन जीव और अजीव को तभी प्रत्यक्ष कर सकते हैं, जब वे किसी संज्ञी के मन में झलक रहे हों, अन्यथा नहीं। सैकड़ों योजन दूर रहे हुए किसी ग्राम-नगर आदि
को मन:पर्यवज्ञानी नहीं देख सकते हैं, लेकिन यदि वही ग्राम आदि किसी के मन में स्मृति के रूप में विद्यमान हैं, तब मन:पर्यवज्ञानी उनका साक्षात्कार कर सकते हैं।
___ अवधिज्ञानी और मन:पर्यवज्ञानी दोनों रूपी पदार्थों को जानते हैं और मन पौद्गलिक होने से रूपी है तो मनःपर्यवज्ञानी की तरह अवधिज्ञानी भी मन की पयार्यों को क्यों नहीं जानता है? समाधान यह है कि अवधिज्ञानी भी मन की पर्यायों को जान सकता है, लेकिन उसमें झलकते हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को प्रत्यक्ष नहीं कर सकता, जैसे टेलीग्राम की टिक-टिक पठित और अपठित सभी प्रत्यक्ष करते हैं और कानों में टिक-टिक भी सुनते हैं, परन्तु उनके पीछे क्या आशय है? इसे टेलीग्राम का काम करने वाले ही समझ सकते हैं।
ज्ञान अरूपी है, अमूर्त है जब कि मन:पर्यवज्ञान का विषय रूपी है, तो मन:पर्ययज्ञानी मनोगत भावों को कैसे समझ सकता है? और उन भावों को प्रत्यक्ष कैसे कर सकता है? जबकि भाव अरूपी है, इसका समाधान यह है कि क्षायोपशमिक भाव में जो ज्ञान होते हैं, वे एकान्त अरूपी नहीं होते हैं, कथचिंत रूपी भी होते हैं। एकान्त अरूपी ज्ञान क्षायिक भाव में ही होता है, जैसे औदयिक भाव में जीव कथंचित् रूपी होते हैं, वैसे ही क्षायोपशमिक ज्ञान भी कथंचित् रूपी होते हैं, सर्वथा अरूपी नहीं। जैसे विशेष पठित व्यक्ति भाषा को सुनकर कहने वाले के भावों को और पुस्तकगत अक्षरों को पढ़ कर लेखक के भावों को समझ लेता है, वैसे ही अन्य-अन्य निमित्तों से भी समझे जा सकते हैं। क्योंकि क्षायोपशमिक भाव सर्वथा अरूपी नहीं होता है। जैसे कोई व्यक्ति स्वप्न देख रहा है, उसमें क्या दृश्य देख रहा है? किससे क्या बातें कर रहा है? क्या खा रहा है और क्या सूंघ रहा है? इत्यादि उस सुप्त व्यक्ति की जैसी अनुभूति हो रही है, उसे यथातथ्य मन:पयर्वज्ञानी प्रत्यक्ष प्रमाण से जानते हैं। जैसे स्वप्न एकान्त अरूपी नहीं है, वैसे ही क्षायोपशमिक भाव में मनोगत भाव भी अरूपी नहीं होते हैं। जैसे स्वप्न में द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव साकार हो उठते हैं, वैसे ही चिन्तन (मनन) आदि के समय मन में द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव साकार हो उठते हैं। इससे मन:पर्यवज्ञानी को जानने-देखने में सुविधा हो जाती है। जाणइ पासइ की उत्पत्ति के संबंध में विविध मत
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के वर्णन सूत्र में 'जाणइ' और 'पासइ' इन दो क्रियाओं का प्रयोग हुआ है। यहाँ 'जाणइ' का अर्थ जानना और 'पासइ' का अर्थ देखना किया है। विशेष रूप से इनका अर्थ करे तो जाणइ का अर्थ होता है ज्ञान रूप अर्थात् वस्तु के विशेष स्वरूप को जानना और पासइ का अर्थ होता है दर्शन रूप अर्थात् वस्तु के सामान्य स्वरूप को जानना। जैन दर्शन में पांच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन कुल 12 उपयोग का वर्णन उपलब्ध होता है। पांच ज्ञानों में से मतिज्ञान,