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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
जानते हैं, साक्षात् रूप से नहीं, क्योंकि चिंतन करने वाला तो रूपी अरूपी और उभय प्रकार से वस्तुओ का चिंतन करता है, लेकिन छद्मस्थ अरूपी (अमूर्त) वस्तु को साक्षात् नहीं जान सकता है। इसलिए चिंतनीय वस्तु अनुमान से ही जानी जाती है।198
भगवतीसूत्र (शतक 8 उ. 2) और नंदीसूत्र के अनुसार ऋजुमति अनन्त भावों को जानते देखते हैं, सर्वभावों के अनन्तवें भाग को जानते देखते हैं। उन्हीं को विपुलमति अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर और वितिमिरतर जानते देखते हैं। 99
जघन्य ऋजुमति मनःपर्यायज्ञानी द्रव्य मन के प्रत्येक स्कन्ध की संख्यात पर्याय ही जानते हैं, लेकिन मनोद्रव्य के अनन्त स्कन्ध जानते हैं और उनकी अपेक्षा अनन्त पर्यायें जानते हैं। लेकिन यह पर्याय उत्कृष्ट ऋजुमति मन:पर्याय से अनन्तवें भाग मात्र है। उत्कृष्ट ऋजुमति मन:पर्यायज्ञानी द्रव्यमन के प्रत्येक स्कन्ध की असंख्याता पर्यायों को जानते हैं, तथा द्रव्यमन के अनन्त स्कन्ध जानते हैं, अतः उनकी अपेक्षा अनन्त पर्यायें जानते हैं। वे पर्यायें जघन्य ऋजुमति से अनंतगुणा अधिक हैं, परन्तु द्रव्यमन की जितनी पर्यायें होती हैं, उनका अनंतवाँ भाग मात्र जानते हैं, क्योंकि वे प्रत्येक मनोद्रव्य स्कन्ध की वर्तमान अनन्त पर्यायों को और त्रैकालिक अनंत पर्यायों को नहीं जानते, मात्र कुछ काल की असंख्याता पर्यायों को ही जानते हैं। मध्यम ऋजुमति मन:पर्यायज्ञानी जघन्य मन:पर्याय ज्ञान द्वारा जितनी पर्यायें जानी जाती है, उनसे कोई अनन्तवें भाग अधिक इत्यादि छह स्थान अधिक पर्यायों और उत्कृष्ट मन:पर्यवज्ञान से कोई छह स्थान हीन पर्यायों को जानते हैं 100 ___षट्खण्डागम के मतानुसार - ऋजुमति भाव की अपेक्षा से जघन्य (एक समय सम्बन्धी
औदारिक शरीर की निर्जरा को) और उत्कृष्ट (एक समय सम्बन्धी इन्द्रिय (चक्षु) की निर्जरा को) द्रव्यों के उसके योग्य असंख्यात पर्यायों को जानता है। इसी प्रकार विपुलमति भाव की अपेक्षा जो-जो द्रव्य ज्ञात हैं, उनकी असंख्यात पर्यायों को जानता है।202
गोम्मटसार की दृष्टि में भाव से ऋजुमति का जघन्य विषय आवलिका का असंख्यातवां भाग है। उत्कृष्ट भी उतना ही है, किन्तु जघन्य से उत्कृष्ट असंख्यातगुणा अधिक है। उससे विपुलमति का जघन्य विषय असंख्यात गुणा है और उत्कृष्ट असंख्यात लोक जितना है।03
आचार्य आत्मारामजी महाराज ने नंदीसूत्र की व्याख्या करते हुए मनःपर्यायज्ञान के भाव की विशिष्टता का वर्णन पृष्ठ 119 से 121 तक किया जिसका सार यहां पर प्रस्तुत है -
मन:पर्यवज्ञानी अपनी क्षेत्र मर्यादा में रहे हुए संज्ञी जीवों के मन की पर्यायों को जानता है। समय क्षेत्र में रहे हुए कुल संज्ञी जीव संख्यात ही हो सकते हैं, किन्तु चारों गतिओं के संज्ञी जीव असंख्याता होते हैं, उनके मन की पर्यायों को नहीं जानता है। मन चतु:स्पर्शी होता है। मन का प्रत्यक्ष अवधिज्ञानी भी कर सकता है, किन्तु मन की पर्यायों को मनःपर्यवज्ञानी प्रत्यक्ष रूप से जानता और देखता है। जिसके मन में जिस वस्तु का चिन्तन हो रहा है, उसमें रहे हए वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श
198. विशेषावश्यक भाष्य बृहद्वृत्ति, गाथा 814 199. भावओ णं उज्जुमई अणंते भावे जाणइ पासइ, सव्वभावाणं अणंतभागं जाणइ पासइ, तं चैव विउलमई अब्भहियतरागं
विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ। - पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 84 200. प्रज्ञापना सूत्र, भाग 1, पद 5 (जीवपर्याय) पृ. 402
201. षट्खण्डागम, पु. १, सू. 4.1.10, पृ. 63, 65 202. भावेण जं जं दिट्ठ दव्वं तस्स तस्स असंखेजपज्जाए जाणदि। षट्खण्डागम, पु. 9, सू. 4.1.11, पृ. 69 203. आवलिअसंखभागं अवरं च वरं च वरमसंखगुणं। तत्तो असंखगुणिदं असंखलोगं तु विउलमदी।। - गोम्मटसार, गाथा 458