________________
षष्ठ अध्याय
विशेषावश्यकभाष्य में मनः पर्यवज्ञान
पदार्थ मूर्त भी हो सकता है एवं अमूर्त भी। किन्तु दूसरे के मनोगत अर्थ को अमूर्त माना जाता हैं, तो वहाँ पर प्रथम मत के अनुसार अमूर्त मनोगत अर्थ को मनः पर्यवज्ञान का विषय मानने में विसंगति आयेगी क्योंकि छद्मस्थ जीव अमूर्त विषय को देख नहीं सकता है।
विशेष्याश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान का ज्ञेय
[423]
उपर्युक्त विसंगति को दूर करने के लिए जिनभद्रगणि और मलधारी हेमचन्द्र ने दूसरे के मन को मनः पर्यवज्ञान का विषय माना और बाह्य अर्थ को अनुमान से जानना स्वीकार है। ज्ञानात्मक चित्त को जानने की क्षमता मनः पर्यवज्ञान में नहीं है, क्योंकि ज्ञानात्मक चित तो अमूर्त (अरूपी) होता है। जबकि मनः पर्यव ज्ञान का विषय मूर्त रूपी वस्तुएं हैं। सभी जैनदार्शनिकों के अनुसार मनः पर्यवज्ञानी रूपी द्रव्यों को जानता है । मन का निर्माण मनोद्रव्य की वर्गणा से होता है । मन पौद्गलिक है और मन:पर्यवज्ञानी मनोवर्गणा के पर्यायों का जानता है । लेकिन जिस वस्तु का मन में चिंतन किया जाता है वह चिंतनीय वस्तु मनः पर्यव ज्ञान का विषय नहीं है। उस चिंतन की गई वस्तु को मन के पौद्गलिक स्कंधों के आधार पर अनुमान से जाना जाता है।163 योगसूत्र और मज्झिमनिकाय में भी दूसरे के चित्त को ही मनोज्ञान का विषय माना गया है। जिनदासगणि, हरिभद्र, मलयगिरि 167 और उपाध्याय यशोविजय आदि आचार्यों ने जिनभद्रगणि का ही समर्थन किया है। सिद्धसेनगणी के अनुसार चिंतन की जाने वाली अमूर्त वस्तु को ही नहीं बल्कि स्तंभ, कुंभ आदि मूर्त वस्तु को भी अनुमान से ही जाना जाता है। 69
I
168
सिद्धसेनगणी ने मनः पर्यव का अर्थ भाव मन किया है। द्रव्य मन का कार्य चिंतन नहीं करना। चिंतन के समय में जो मनोवर्गणा के पुद्गल स्कंधादि आकृतियाँ बनती हैं, वे सब पुद्गल रूप होती हैं, जबकि भाव मन ज्ञान रूप होने से अमूर्त होता है । छद्मस्थ अमूर्त को नहीं जान सकता है । चिंतन के समय मनः पर्यवज्ञानी विभिन्न पौद्गलिक स्कंधों की भिन्न-भिन्न आकृतियों का साक्षात्कार करता 163. मुणइ मणोदव्वाइंनरलोए सो मणिपज्जमाणाई । काले भूय- भविस्से पलिया संखिज्जभागम्मि ।।
दव्यमणोपवाए जाएइ पास व तन्गएणते तेणावभासिए उण वाणइ बज्झेऽणुमाणेणं वृत्ति मनश्चिन्ताप्रवर्तकानि द्रव्याणि मनोद्रव्याणि ।.....चिन्तको हि मूर्तममूर्तं च वस्तु चिन्तयेत् । न च च्छद्मस्थोऽमूर्तं साक्षात् पश्यति, ततो ज्ञायते - अनुमानादेव चिन्तनीयं वस्तुवगच्छति । विशेषावश्यकभाष्य, मलधारी हेमचन्द्र बहद्वृत्ति, गाथा 813-814, पृ. 332 164. (अ) योगभाष्य 3-19, 34 (ब) मज्मिमनिकाय, भाग. 3, पृ. 161 165. सण्णिणा मणत्तेण मणिते मणोखंधे अनंते अणंतपदेसिए दव्वट्ठताए तग्गते य वण्णादिए भावे मणपज्जणाणेणं पच्चक्खं
पेक्खमाणो जाणति त्ति भणितं, मुणितमत्थं पुण पच्चक्खं ण पेक्खात जेण मणालंबणं मुत्तममुत्तं वा सो य छउमत्थो तं अणुमाणतो पेक्खति त्ति अतो पासणता भणिता । ( अर्थात् संज्ञी जीव द्वारा मनरूप में परिणत अनन्तप्रदेशी मन के स्कन्ध तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को मनः पर्यवज्ञानी साक्षात् देखता है। वह चिन्तित पदार्थ को प्रत्यक्ष नहीं देखता, अनुमान से देखता है, इसलिए उसकी पश्यत्ता बताई गई है। मन का आलम्बन मूर्त-अमूर्त्त दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छद्मस्थ अमूर्त को साक्षात् नहीं देख सकता ।) नंदीचूर्णि, पृ. 39
166. हारिभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 41
167. इह मनस्त्वपरिणतैः स्कन्धैरालोचित बाह्यमर्थं घटादिलक्षणं साक्षादध्यक्षतो मनः पर्यायज्ञानी न जानाति, किन्तु मनोद्रव्याणामेव तथारूपपरिणामान्यथानुपपत्तितोऽनुमानतः । मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 109
168. यशोविजयगणि, जैनतर्कभाषा, पृ. 27
169, ये तु चिन्त्यमानाः स्तम्भ- कुंभादयस्तानक मानेनावगच्छन्ति तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी), पृ. 101