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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
है।54 पूज्यपाद, अकलंक 55 आदि आचार्यों ने भी मन:पर्यव शब्दगत मन का अर्थ दूसरे का मनोगत अर्थ किया हैं। जैसे कि “परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते।''156 इसी प्रकार तत्त्वार्थराजवार्तिक, धवलाटीका और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि में भी इसी प्रकार अर्थ किया गया है।57 यह अर्थ मूर्त है या अमूर्त, इसकी स्पष्टता नियुक्ति, नंदी सूत्र, षट्खण्डागम आदि में प्राप्त नहीं होती है। इसकी स्पष्टता सर्वप्रथम उमास्वाति ने करते हुए कहा है कि अर्थ (मनःपर्यव का विषय) रूपी द्रव्य है।58
षटखण्डागम के मतानुसार सर्व प्रथम दूसरे के मन का ज्ञान होता है और उसके बाद में दूसरों की मनोगत संज्ञा, स्मृति, मति और चित्त अर्थात् मनोज्ञान के उपरांत अन्य जीव के मरण, सुख-दु:ख, लाभ-अलाभ, क्षेम-अक्षेम, भय, रोग और नगर विकास, देश विकास अतिवृष्टि-अनावृष्टि, सुवृष्टिदुर्वृष्टि, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष आदि को जानता है।59 भूतकाल में आचरित, वर्तन, वाणी और विचार का किसी जीव को विस्मरण हो जाता है तो भी मनःपर्यवज्ञानी बिना पूछे ही जान सकता है। इतना ही नहीं भविष्य के जन्मों को भी जान सकता है।61 इसका अर्थ यह हुआ कि मनःपर्यवज्ञानी तीनों काल के विचार, वाणी और वर्तन को जान सकता है। इस प्रकार प्रथम मतानुसार मन:पर्यवज्ञानी दूसरे के मन को साक्षात् जानता है। 2. दूसरा मत
चिंतन प्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं अर्थात् मनोगत अर्थ का विचार करने से जो मन की दशा होती है, उस दशा अथवा पर्यायों को मन:पर्यायज्ञानी प्रत्यक्ष जानता है। किन्तु उन दशाओं में जो अर्थ रहा हुआ है, उसका अनुमान करता है अर्थात् इस मत वाले अर्थ का ज्ञान अनुमान से मानते हैं क्योंकि मन का ज्ञान मुख्य और अर्थ का ज्ञान बाद की वस्तु है। मन के ज्ञान से अर्थ का ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष रूप से अर्थ का ज्ञान नहीं होता है। मन:पर्याय का वास्तिविक अर्थ है कि मन की पर्यायों का ज्ञान, न कि अर्थ की पर्यायों का ज्ञान ।162
एक पक्ष मनःपर्यवज्ञान का विषय दूसरे के मनोगत अर्थ को स्वीकार करता है और इसके विपरीत दूसरा पक्ष दूसरे के द्रव्यमन (परचित्त का साक्षात्कार) को मनःपर्यवज्ञान का विषय मानता है।
द्वितीय मत के समर्थक - जिनभद्रगणि, जिनदासगणि, हरिभद्र, मलयगिरि, यशोविजय आदि आचार्यों ने द्वितीय पक्ष का समर्थन किया है अर्थात् द्रव्य मन की पर्यायों को मनःपर्यवज्ञान का विषय माना है। यहाँ पर यह प्रश्न उठाया गया है कि मन की पर्यायों को जानने के साथ उनमें चिन्त्यमान पदार्थों को जानने की मान्यता उचित है या अनुचित, इस सम्बन्ध में कहा गया है कि चिन्त्यमान 154. अवधिज्ञानविषयस्यानन्त भागं मनःपर्यायज्ञानी जानीते रूपिद्रव्याणि मनोरहस्यविचारगतानि च मानुषक्षेत्रपर्यान्नानि विशुद्धतराणि
चेति। - उमास्वाति, तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (तत्त्वार्थभाष्य), सूत्र 1.29 155. परकीयमनोगतार्थज्ञान मन:पर्ययः । तत्वार्थवार्तिक 1.9.4 और 1.23.2-4 156. सर्वार्थसिद्धि 1.9 पृ. 67, इसी प्रकार परकीय मनसि व्यवस्थितोऽर्थः अनेन ज्ञायते इत्येतावदत्रापेक्ष्यते। 1.23, पृ. 92 157. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.9.4, पृ. 32, षट्खण्डागम (धवलाटीका), पु. 13, सूत्र 5.5.60, पृ. 328,
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.23.13, पृ. 246 158. रूपिद्रव्येष्वसर्वपर्यायेष्ववधेर्विषयनिबन्धो भवित। तदनन्तभागे मन:पर्यायस्येति। - तत्त्वार्थभाष्य, 1.26, पृ. 104 159. मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णा सदि .... जाणावि। षट्खण्डागम (धवलाटीका) पु. 13, सूत्र 5.5.63, पृ. 332 160. तत्वार्थवार्तिक 1.23.4
161. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.65, पृ. 338 162. विशेषावश्यकभाष्य,गाथा 814