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षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान
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३. अभ्यधिकतर और विपुलतर एकार्थक हैं। विशिष्ट विशुद्धि विशेष रूप से दर्शाये गये तर शब्द से होती है। जैसे शुक्ल और शुक्लतर। 48
विसुद्धतराए (विशुद्धतर) और वितिमिरतराए (वितिमिरतर) एकार्थक हैं तथा इनमें कुछ भिन्नता भी है। जिस प्रकार प्रकाशक द्रव्य विशेष से क्षेत्र विशुद्धि विशेष दिखाई देती है, उसी प्रकार मन:पर्यवज्ञानावरण के क्षयोपशम से ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति विशुद्धतर जानता है। मन:पर्यवज्ञानावरण के क्षयोपशम विशेष से प्राप्त होने के कारण यह वितिमिरतर भी कहा जाता है अथवा पूर्वबद्ध मनःपर्यवज्ञानावरण के क्षयोपशम के कारण वह विशुद्ध कहा जाता है। उसके आवरण के बन्धने का अभाव होने से पूर्वबद्ध का अनुदय होने से वह भी वितिमिरतर कहा जाता है। 49
8. उत्कृष्ट ऋजुमति और विपुलमति, ये दोनों आनुगामिक होते हैं, अनानुगामिक नहीं। मध्यगत होते हैं, अन्तगत नहीं। सम्बद्ध होते हैं, असम्बद्ध नहीं। जघन्य ऋजुमति सब प्रकार का संभव है।
9. ऋजुमति वर्द्धमान होकर विपुलमति हो सकता है, पर विपुलमति हीयमान होकर ऋजुमति नहीं हो सकता। मनःपर्यवज्ञान के ज्ञेय संबन्धी विचार
मन:पर्यवज्ञानी के मन:पर्यवज्ञान का क्या ज्ञेय विषय है, इसके सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है? इन मतभेदों की चर्चा पंडित सुखलालजी ने ज्ञानबिन्दुप्रकरण'51 में दो मतों के रूप में की है:1. प्रथम मत
__ मनःपर्यवज्ञानी मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु (मनोगत अर्थ) को जानता है अर्थात् किसी जीव ने मन में जिस सचेतन अथवा अचेतन अर्थ का विचार किया है, उसको आत्मा के द्वारा मन:पर्यायज्ञान प्रत्यक्ष जानता है। इसका यह अर्थ हुआ कि मन के द्वारा चिन्तित अर्थ के ज्ञान के लिए मन को माध्यम नहीं मानकर सीधा उस अर्थ का प्रत्यक्ष होता है। इस मत के समर्थक मन के पर्याय और अर्थपर्याय में लिङ्ग और लिङ्गी का सम्बन्ध नहीं मानते हैं। मन मात्र ज्ञान में सहायक है। जैसे किसी ने सूर्य बादलों में है ऐसा देखा तो उसके इस ज्ञान में बादल तो सूर्य को जानने के लिए आधार मात्र हैं, वास्तव में प्रत्यक्ष तो अर्थ का ही हुआ है। इसलिए मनःपर्यवज्ञान में मन की आधार रूप में आवश्यकता है। 52
प्रथम मत के समर्थक - नियुक्तिकार भद्रबाहु, देववाचक, पुष्पदन्त-भूतबलि, उमास्वाति, पूज्यपाद अकलंक, वीरसेनाचार्य, विद्यानंद आदि आचार्यों ने उपर्युक्त प्रथम पक्ष का समर्थन किया है। नंदीसूत्र में भी मनःपर्यवज्ञान का विषय चिंतन की गई वस्तु को माना है। "मणपजवणाणं पुण, जणमणपरिचिंतियत्थपागडणं।"153 अर्थात् मनःपर्यवज्ञानी मनुष्यक्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन द्वारा परिचिंतित अर्थ को प्रकट करने वाला है। इसी प्रकार आवश्यकनियुक्ति एवं तत्त्वार्थभाष्य का भी मत 148.अहवा दोऽवि पदा एगट्ठा विसिट्ठविसुद्धिविसेसदंसगो तरसद्दो त्ति यथा शुक्ल: शुक्लतर इति। - नंदीचूर्णि, पृ. 40 149. जहा पगासगदव्वविसेसातो खेत्तविसुद्धि विसेसो लक्खिज्जति तहा मणपज्जवणाणावरणविसेसातो रिजुमणपज्जवणाणि समीवातो
विपुलमणपज्जवणाणी विसुद्धतरागं जाणति, मणपजवणाणावरणखयोवसमुत्तमलंभत्तणतो वा वितिमिरतरागं ति भण्णति । अहवा पुव्वबद्धमणपज्जवणाणावरण-खयोवसमुत्तमलंभत्तणओ विसुद्धं ति भणति तस्सेवावरणबज्झमाणस्सऽभावत्तणतो पुव्वबद्धस्स
य अणुदयत्तणतोवितिमिरतरागं ति भण्णति। - नंदीचूर्णि, पृ. 40 150. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 81
151. ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, परिचय, पृ. 41 152. सर्वार्थसिद्धि 1.9, तत्त्वार्थराजवर्तिक 1.26.6-7
153. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ 52