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________________ [420] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 2. स्वामी की दृष्टि से ऋजुमति का स्वामी उपशांत कषायी होता है, जबकि विपुलमति का स्वामी क्षीणकषायी है। 3. अपेक्षा की दृष्टि से ऋजुमति को अन्य के मन, वचन और काया की अपेक्षा रहती है, जबकि विपुलमति को उक्त अपेक्षा की आवश्यकता नहीं रहती है।39 4. विशुद्धि की अपेक्षा से ऋजुमति से विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विशुद्धतर होता है। 140 5. प्रमाण की दृष्टि से ऋजुमतिज्ञान जितने द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव को जानता है, उसकी अपेक्षा विपुलमतिज्ञानी अधिक जानता है। मन:पर्यवज्ञान द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव का विस्तार से वर्णन आगे किया गया है।41 6. सूक्ष्मता की अपेक्षा से ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति का ज्ञान विशेष सूक्ष्म होता है। क्योंकि सर्वावधि के विषय का अनंतवां भाग ऋजुमति का विषय है और उसका भी अनंतवां भाग विपुलमति का विषय है। 142 ___7. ऋजुमति और विपुलमति में भेद की अपेक्षा से नंदीसूत्र में निम्न शब्द दिये हैं। ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी जिन भावों को जानता है, विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी उन्हीं भावों को अधिकतर विपुलतर विशुद्धतर और उज्ज्वलतर रूप से जानता देखता है।143 जैसेकि __ 1. अब्भहियतरागं (अब्भहियतराए)- विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा अभ्यधिक (एक दिशा की अपेक्षा) ज्ञान है। 44 2. विउलतरागं (विउततराए)- सब दिशा में हो वाले ज्ञान का विपुलतर कहा जाता है।45 चूर्णिकार ने अभ्यधिकतर और विपुलतर के तीन वैकल्पिक अर्थ किए हैं, जो इस प्रकार हैं - १. यदि एक घड़े से दूसरे घड़े में अधिक पानी आता है तो वह घड़ा पहले घड़े से अभ्यधिक है और जो अभ्यधिक होता है, उसका क्षेत्र विपुल (विस्तीर्ण) हो जाता है। इसी प्रकार विपुलमति के विषयभूत मनोद्रव्य का क्षेत्र अधिक होता है। 46 २. ऋजुमति लम्बाई (आयाम) चौडाई (विष्कंभ) की अपेक्षा से अभ्यधिकतर क्षेत्र को जानता है, जबकि विपुलमति क्षेत्र के मोटाई (बाहल्य) को भी जानता है, इसलिए वह विपुलतर क्षेत्र को जानता है। 147 138. अप्रतिपातेनापि विपुलमतिर्विशिष्टः, स्वामिनां प्रवर्द्धमानचारित्रोदयत्वात् । ऋजुमति पुनः प्रतिपाती, स्वामिनां कषायोद्रेकाद्धीयमान चारित्रोदयत्वात्। सर्वार्थसिद्धि 1.24 पृ. 93, तत्त्वार्थवार्तिक 1.24.2 पृ. 59 139. जदि मणपज्जयणाणमिंदिय-णोइंदिय-जोगाविणिरवेक्खं संतं उप्पज्जदि तो परेसिं मण-वयण काय। - धवलाटीका, पु. 13, सूत्र 5.5.62, पृ. 331 140. सर्वार्थसिद्धि 1.23 141. प्रस्तुत अध्याय, पृ. 424-433 142. तत्त्वार्थ सूत्र 1.29, सर्वार्थसिद्धि 1.28, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.28. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.28.3,4 143. तं चेव विउलमती अब्भहियतराए विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ। - नंदीसूत्र, पृ. 49 144.रिजुमतिखेत्तोवलंभप्पमाणतो विपुलमती अब्भहियतयरागं खेत्तं उवलभइ त्ति । एगदिसिं पि अब्भहियसंभवो भवति। नंदीचूर्णि,पृ. 40 145. समंततो जम्हा अब्भहियंति तम्हा विपुलतरागं भण्णति। - नंदीचूर्णि, पृ. 40 146. अहवा जहा घडातो जलाहारत्तणतो अब्भहिओ सो पुण नियमा घडागासखेत्तेण विउतलरो भवति, एवं विउलमती अब्भहियतरागं ___मणोलद्धिजीवदव्वाधारखेत्तं जाणति, तं च नियमा विपुलतरं इत्यर्थः। - नंदीचूर्णि, पृ. 40 147. अहवा आयामविक्खंभेणं अब्भहियतरागं बाहल्लेण विउलतरं खेत्तं उपलभत इत्यर्थः। - नंदीचूर्णि, पृ. 40
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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