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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
है । इसलिए मन की पर्याय को जानना अर्थात् भाव मन को जानना ऐसा नहीं मानना, बल्कि भाव मन के कार्य में निमित्त बने मनोवर्गणा के पुद्गल स्कंधों को जानता है। 70
इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में मात्र प्रथम मत मान्य है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में दोनों मत प्रतीत होते हैं। किन्तु हेमचन्द्र 171 आदि उत्तकालीन आचार्यों के द्वारा द्वितीय मत को महत्त्व दिया गया है।
उपर्युक्त दोनों मतों में से द्वितीय मत अधिक उचित प्रतीत होता है, इसके दो कारण हैं - 1. भावमन ज्ञानात्मकरूप होने से अरूपी होता है और अरूपी पदार्थों को छद्मस्थ नहीं जान सकते हैं। लेकिन भाव मन में उत्पन्न विचारों से द्रव्य मन में जिन मनोवर्गणा के स्कंधों का निमार्ण होता है, वे पुद्गलमय होने से रूपी हैं और रूपी पदार्थों को छद्मस्थ जान सकता है। अतः मनः पर्यवज्ञान का विषय द्रव्य मन ही होता है, भाव मन नहीं।
2. मनःपर्याय ज्ञान से साक्षात् अर्थ का ज्ञान नहीं होता है, क्योंकि मन:पर्यवज्ञान का विषय रूपी द्रव्य का अनन्तवां भाग है । 172 यदि मन: पर्यायज्ञानी मन के सभी विषयों का साक्षात् ज्ञान कर लेता है तो अरूपी द्रव्य भी उसके विषय हो जाते हैं। क्योंकि मन के द्वारा अरूपी द्रव्य का भी चिन्तन हो सकता है, लेकिन मनः पर्यवज्ञानी इन्हें नहीं जानता है । अवधिज्ञानी सभी प्रकार के पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण कर सकता है। किन्तु मनःपर्यायज्ञानी उनके अनन्तवें भाग अर्थात् मन रूप बने हुए पुद्गलों को मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्दर जान सकता है मन का साक्षात्कार करके उसमें चिन्तित अर्थ को अनुमान से जानता है । ऐसा मानने पर मन के द्वारा सोचे गये मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्यों को जान सकता है।
उपर्युक्त दो कारणों से द्वितीय मत का पक्ष अधिक मजबूत होने से मनः पर्यवज्ञान का विषय द्रव्यमन को मानना अधिक तर्क संगत है। इसका समर्थन पं. सुखलाल संघवी 73 ने भी किया है। उनका मानना है कि प्रथम परम्परा में दोष उत्पन्न होने के कारण ही द्वितीय मत का विकास हुआ है। क्योंकि मनः पर्यवज्ञानी दूसरे के मन की पर्यायों को ही जानता है, उसके मन में चिन्त्यमान पदार्थों को तभी जान सकता है जब मन की पर्यायों को जान लिया हो। मन की पर्यायों को जानने के बाद यदि चिन्त्यमान पदार्थों को जानता है तो उन्हें अनुमान से जाना जा सकता है, या फिर अवधिज्ञान से । चिन्तन को जानना तथा चिन्त्यमान पदार्थों को जानना भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य हैं।
उपर्युक्त दो मतो का उल्लेख कैलाशचन्द्र शास्त्री ने भी करते हुए कहा है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में दूसरा लक्षण ही मान्य है और दिगम्बर परम्परा में पहला लक्षण मान्य है । 174
170. मनो द्विविधं द्रव्यमनो भावमनश्च तत्र द्रव्यमनो मनोवर्गणा, भावमनस्तु ता एव वर्गणा जीवेन गृहीताः सत्यो मन्यमानाश्चिन्त्यमाना भावमनोऽभिधीयते । तत्रेह भावमनः परिगृह्यते, तस्य भावमनसः पर्यायास्ते चैवंविधा: - यदा कश्चिदेवं चिन्तयेत् किंस्वभाव आत्मा ? ज्ञानस्वभावोऽमूर्तः कर्ता सुखादीनामनुभविता इत्यादयो यविषयाध्यवसायाः परगतास्तेषु यज्ज्ञानं तेषां वा वज्ञानं तन्मनःपर्यायज्ञानम्। तानेव मनः पर्यायान् परमार्थतः समवबुध्यते बाह्यास्त्वनुमानादेवेत्यसी तन्मनः पर्यायज्ञानम्।
तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी पृ. 70 171. मनसो द्रव्यरूपस्य पर्यायाश्चिन्तनानुगुणाः परिणामभेदास्तद्विषयं ज्ञानं मनः पर्यायः । यद्बाह्यचिन्तनीयार्थज्ञाने तत् आनुमानिकमेव
न मनःपर्यायप्रत्यक्षम्। - प्रमाणमीमांसा (पं. सुखलाल संघवी ), 1.1.18, पृ. 15
172. तदनन्तभागे मन: पर्यायस्य । तत्त्वार्थसूत्र 1.29
173. प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण पृ. 37-38
174. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैनन्याय, पृ. 162