________________
प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय [19] 3. नियुक्तियों के रचनाकार श्रतुकेवली भद्रबाहु हैं इस मान्यता का यह कारण भी हो सकता है कि आवश्यकनियुक्ति का प्रारंभ श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा किया गया हो तथा बाद में उसकी गाथाओं में क्रमश: वृद्धि होती रही हो और इसे अन्तिम रूप भद्रबाहु (द्वितीय) ने दिया हो, नियुक्ति गाथा में वृद्धि होती रहने की पुष्टि कई उदाहरणों से होती है, जैसे आवश्यकनियुक्ति के प्रथम अध्ययन की 157 गाथाएं हरिभद्रीयवृत्ति में हैं, किन्तु आवश्यकचूर्णि में मात्र 57 गाथाएं हैं। निश्चय ही चूर्णि व हारिभद्रीय टीका के मध्य 100 गाथाएं और जुड़ गई हैं। इतना ही नहीं भद्रबाहु (द्वितीय) के बाद भी गाथाओं में वृद्धि होते रहने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। ___ आर्यभद्रगुप्त का कर्तृत्व - डॉ. सागरमल जैन ने नियुक्तिकार के सम्बन्ध में अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए कहा है कि नियुक्तियों का रचना काल तीसरी-चौथी शती के पूर्व का है, तथा इनके रचनाकार नैमित्तिक भद्रबाहु नहीं होकर या तो काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त या फिर गौतमगोत्रीय आर्यभद्र है अथवा अन्य कोई भद्रबाहु नामक आचार्य हैं। इस कथन की सिद्धि के लिए प्रमाण देते हुए उन्होंने निष्कर्ष रूप में कहा है कि नियुक्तियों के कर्ता आर्य नक्षत्र की परम्परा में हुए आर्य विष्णु के प्रशिष्य एवं आर्य संपालित के गुरु-भ्राता गौतमगोत्रीय आर्यभद्र ही हैं। यद्यपि यह निष्कर्ष
अन्तिम तो नहीं है, लेकिन आर्यभद्र को नियुक्ति का कर्त्ता स्वीकार करने पर हम उन अनेक विप्रतिपत्तियों से बच सकते हैं, जो प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त और वराहमिहिर के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाहु को नियुक्तियों का कर्ता मानने पर आती हैं।
इस प्रकार नियुक्ति साहित्य के कर्ता कौन से भद्रबाहु हैं, यह विवाद का विषय रहा है। प्रथम भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वधर थे, सम्भवतः उन्होंने नियुक्ति साहित्य का प्रारंभ किया होगा तथा निमित्तज्ञ आर्य भद्रबाहु के समय नियुक्ति साहित्य की रचना पूर्णता को प्राप्त हुई होगी।
आश्वयकनियुक्ति (वृत्ति) का मलयगिरि वृत्ति (विवरण) के साथ प्रकाशन आगमोदय समिति, बम्बई द्वारा प्रथम भाग 1928 में, दूसरा भाग 1932 में एवं तीसरा भाग 1936 में देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार संस्था, सूरत द्वारा किया गया एवं समणी डॉ. कुसुमप्रज्ञा कृत हिन्दी अनुवाद सहित ई. 2001 में जैन विश्वभारती लाडनूं से प्रथम भाग प्रकाशित हुआ है।
2. भाष्यपरम्परा एवं जिनभद्रगणि कृत विशेषावश्यक भाष्य
नियुक्तियों की व्याख्याशैली बहुत ही गूढ और संक्षिप्त है। उसमें विषय विस्तार का अभाव है, भाष्य या टीका के बिना इनको समझना मुश्किल होता है। अतः नियुक्ति या मूल आगमों के गूढार्थ को शिष्यों को समझाने के लिए या नियुक्तियों के गम्भीर रहस्यों को प्रकट करने के लिए पूर्वाचार्यों ने विस्तार से प्राकृत भाषा में जो पद्यात्मक व्याख्याएं लिखीं उन व्याख्याओं को भाष्य कहते हैं। 'न्यायदर्शनम्' की प्रस्तावना में भाष्य का लक्षण करते हुए कहा गया है "सूत्रार्थों वर्ण्यते यत्र पदैः सूत्रानुसारिभिः। स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः।" अर्थात् सूत्र के पदों के अनुसार सूत्र के अर्थ का वर्णन किया जाता है तथा स्व पदों का वर्णन किया जाता है, उसे भाष्य कहते हैं। नियुक्तियों के शब्दों में छिपे हुए अर्थबाहुल्य को अभिव्यक्त करने का श्रेय भाष्यकारों को ही है। कुछ
74. विशेषावश्यकभाष्य (आचार्य सुभद्रमुनि) प्रस्तावना पृ. 48-49 75. डॉ. सागरमल जैन 'नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन', डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ, द्वितीय खण्ड, पृ. 46-60 76. संपा. श्री नारायणमिश्र, चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, प्रस्तावना पृ. 27