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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
श्री पुण्यविजयजी” ने पक्ष-विपक्ष के प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि नियुक्तिकार श्रुतकेवली भद्रबाहु नहीं हैं, सम्भवतः ये अन्य कोई नहीं, अपितु वराहसंहिता के रचयिता वराहमिहिर के भाई मंत्रविद्या के पारगामी नैमित्तिक भद्रबाहु ही होने चाहिए। उपर्युक्त पक्ष-विपक्ष के सभी प्रमाणों का सकंलन डॉ. सागरमल जैन ने 'निर्युक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन' शोधालेख में हिन्दी भाषा में रूपान्तरित कर के किया है।° अधिकांश विद्वानों का मत है के निर्युक्ति के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु ही हैं । नैमित्तिक भद्रबाहु का निर्युक्तिकर्तृत्व पण्डित दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार छठी
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शताब्दी में हुए नैमित्तिक भद्रबाहु द्वारा लिखी हुई नियुक्तियों में प्राचीन भाग सम्मिलित है अथवा नहीं? क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों में, भगवती आराधना और मूलाचार में बहुत-सी गाथाएं निर्युक्ति की हैं । अतः निश्चय में नहीं कह सकते हैं कि उपलब्ध नियुक्तियों की समस्त गाथाएं केवल छठी शताब्दी में ही लिखी गई हैं । यदि पुरानी गाथाओं का समावेश कर नई कृति बनाई गई है तो फिर सभी निर्युक्तियों को छठी शताब्दी की ही कैसे माना जाए ? अनुयोगद्वार प्राचीन है, उसकी गाथाएं निर्युक्ति में हैं। अत: छठी शताब्दी के भद्रबाहु ने उपलब्ध रचना लिखी हो, तो भी यह मानना पड़ता है कि प्राचीनता की परम्परा निराधार नहीं । छठी शताब्दी के भद्रबाहु की कृति में से प्राचीन माने जाने वाले दिगम्बर ग्रंथों में गाथाएं ली गईं, यह कल्पना कुछ अतिशयोक्ति पूर्ण मालूम होती है ।"
इसके समाधान के लिए ऐसा मान सकते हैं निर्युक्ति एक संग्रह ग्रंथ है। मूल निर्युक्ति तो भद्रबाहु की थी। संक्षिप्त होने से इतना अर्थ समझकर सविस्तार व्याख्या करना कठिन होने से आचार्यों ने आवश्यकतानुसार शिष्यों को समझ में आवे इस प्रकार एक गाथा के पीछे 4-5 गाथा बनाकर जोड़ दी गयी हो, यह सम्भव है । फिर आगे भी यह क्रम चलता रहा। इस प्रकार ग्रंथ बढ़ता गया। उपयोगी होने से नवीन गथाएं भी मूल निर्युक्ति में निबद्ध हो गईं। यह कृति मात्र चौदहपूर्वी भद्रबाहु की ही होती तो उसे भी आगम तुल्य मान लिया जाता। इसके समर्थन विद्वानों का चिन्तन इस प्रकार है
1. मुनि श्री पुण्यविजयजी ने उल्लेख किया है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु ने निर्युक्तियाँ प्रारंभ की और द्वितीय भद्रबाहु तक उन निर्युक्तियों में विकास होता रहा। इस प्रकार नियुक्तियों में कुछ गाथाएं बहुत ही अधिक प्राचीन हैं तो कुछ अर्वाचीन हैं। वर्तमान जो नियुक्तियाँ हैं, वे चर्तुदश पूर्वधर भद्रबाहु के द्वारा पूर्ण रूप से रचित नहीं हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से सिद्ध किया है कि जो आवश्यक आदि निर्युक्तियाँ वर्तमान में उपलब्ध हैं, वे प्रथम चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु की नहीं होकर विक्रम की छठी शताब्दी में विद्यमान दूसरे भद्रबाहु की रचना है | 2
2. देवेन्द्रमुनि शास्त्री के अभिमतानुसार समवायांग, स्थानांग एवं नन्दी में द्वादशांगी का परिचय दिया गया है, वहाँ पर 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' यह पाठ प्राप्त होता है। इससे यह स्पष्ट है कि निर्युक्तियों की परम्परा आगम काल में भी थी । प्रत्येक आचार्य या उपाध्याय अपने शिष्यों को आगम का रहस्य हृदयंगम कराने के लिए अपनी-अपनी दृष्टि से नियुक्तियों की रचना करते रहे होंगे। जैसे वर्तमान प्रोफेसर विद्यार्थियों को नोट्स लिखवाते हैं, वैसे ही नियुक्तियाँ रही होंगी। उन्हीं को मूल आधार बनाकर द्वितीय भद्रबाहु ने नियुक्तियों को अन्तिम रूप दिया होगा
69. बृहत्कल्पसूत्रम् भाग 6, भावनगर, श्री आत्मानन्द जैन सभा, प्रस्तावना
70. डॉ. सागरमल जैन 'निर्युक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन', डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ, द्वितीय खण्ड, पृ. 46-60
71. द्रष्यव्य, गणधरवाद प्रस्तावना पृ० 10
72. मुनि श्री पुण्यविजयजी, मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रंथ, पृ. 718-719 73. आवश्यक सूत्र, प्रस्तावना पृ० 55