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[D] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन भाष्य नियुक्तियों पर और कुछ सीधे ही मूल आगमों के सूत्रों पर लिखे गये हैं। नियुक्तियों के भाष्य भी प्राकृत गाथाओं में संक्षिप्त शैली में लिखे गये हैं। नियुक्तियों की भाषा के समान भाष्यों की भाषा भी मुख्यरूप से प्राचीन प्राकृत (अर्धमागधी) है, अनेक स्थलों पर मागधी और शौरसेनी के प्रयोग भी देखने में आते हैं, मुख्य छंद आर्या है।
भाष्यों का समय सामान्य तौर पर ईस्वी सन् की लगभग चौथी-पांचवीं शताब्दी माना जा सकता है। भाष्य में अनेक प्राचीन अनुश्रुतियाँ, लौकिक कथाएं और परंपरागत निग्रंथों के प्राचीन आचार-विचार की विधि आदि का प्रतिपादन है। जैन श्रमण संघ के प्राचीन इतिहास को सम्यक् प्रकार से समझने के लिए भाष्यों का अध्ययन भी आवश्यक है। मुख्य रूप से जिनभद्रगणि और संघदासगणि ही भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं।
जिस प्रकार प्रत्येक आगम पर नियुक्ति की रचना नहीं हुई, उसी प्रकार प्रत्येक आगम पर भाष्य भी नहीं लिखा गया। निम्नलिखित दस आगमों पर भाष्य की रचना हुई है - 1. आवश्यक, 2. दशवैकालिक, 3. उत्तराध्ययन, 4. बृहत्कल्प, 5. पंचकल्प, 6. व्यवहार, 7. निशीथ, 8. जीतकल्प, 9. ओघनियुक्ति, 10. पिण्डनियुक्ति।।
आगम भाष्यकार संघदासगणि आचार्य हरिभद्र के समकालीन थे। 'वसुदेव हिण्डी' के रचयिता संघदासगणि से वे भिन्न थे। उन्होंने निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार इन तीन सूत्रों पर विस्तृत भाष्य लिखे हैं। आचार्य जिनभद्रगणि के दो भाष्य प्राप्त होते हैं - जीतकल्प भाष्य एवं विशेषावश्यकभाष्य।
डॉ. मोहनलाल मेहता के अनुसार आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गए हैं -1. मूलभाष्य 2. भाष्य एवं 3. विशेषावश्यक भाष्य। प्रथम दो भाष्य तो बहुत संक्षिप्त हैं और उनकी अनेक गाथाओं का समावेश विशेषावश्यकभाष्य में कर लिया गया है। अतः विशेषावश्यकभाष्य तीनों भाष्यों का प्रतिनिधि है।
डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा के अनुसार वर्तमान में भाष्य नाम से अलग न गाथाएं मिलती है और न ही कोई स्वतंत्र कृति अत: दो भाष्यों का ही अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए। मूलभाष्य की अनेक गाथाएं विशेषावश्यकभाष्य की अंग बन चुकी हैं फिर भी हारिभद्रीय एवं मलयगिरिकृत टीका में मूलभाष्य के उल्लेख से अलग गाथाएं मिलती है। मूलभाष्य के कर्ता नियुक्तिकार भद्रबाहु हो सकते
नोट :- जिनभद्रगणि एवं उनके विशेषावश्यकभाष्य की चर्चा इसी अध्याय में आगे की गई है। 3. आवश्यकचूर्णि एवं चूर्णिकार
नियुक्ति और भाष्य की रचना के पश्चात् जैन मनीषियों के अन्तर्मानस में आगमों पर गद्यात्मक व्याख्या साहित्य लिखने की भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्याओं की रचना की, जो आज चूर्णिसाहित्य के नाम से प्रसिद्ध है। चूर्णियों में प्राकृत की प्रधानता होने के कारण इनकी भाषा को मिश्रप्राकृत भाषा कहना सर्वथा उचित ही है।
चूर्णियाँ गद्य में लिखने का कारण संभवतः पद्य में लिखे हुए नियुक्ति और भाष्य में जैनधर्म के सिद्धांतों को विस्तार से प्रतिपादन करने के लिये अधिक गुंजाइश नहीं थी। इसके अलावा, चूर्णियाँ केवल प्राकृत में ही न लिखकर संस्कृत मिश्रित प्राकृत में लिखने से साहित्य का क्षेत्र नियुक्ति और
77. जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृ. 117 78. आवश्यकनियुक्ति, भूमिका, पृ. 43