________________ [408] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन मन:पर्यायज्ञान, सम्मूच्छिम मनुष्यों को उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वे साधु नहीं बन सकते हैं,इसलिए यह ज्ञान केवल गर्भज मनुष्यों को ही उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि उन्हीं में से साधु बन सकते हैं। 3. कर्मभूमिजमनुष्य गर्भ-व्युत्क्रान्तिक मनुष्यों में भी मन:पर्यायज्ञान कर्मभूमिज गर्भोत्पन्न मनुष्यों को ही उत्पन्न होता गर्भज-मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं -1. कर्मभूमिज, 2. अकर्मभूमिज और 3. अन्तरद्वीपज,यथा 1. कर्मभूमिज - कृषिवाणिज्यादि जीवन निर्वाह के कार्यों और मोक्ष-सम्बन्धी अनुष्ठानों को कर्म कहा जाता है इसलिए जिस भूमि में सदा या किसी समय भी राज्य, वाणिज्य, कृषि आदि लौकिक कर्म या सम्यक् चारित्र, सम्यक् तपादि लोकोत्तर धर्म प्रवृत्त हों, उसे 'कर्मभूमि' कहते हैं। पाँच भरत, पाँच ऐरवत और पाँच महाविदेह, ये पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं। जो इनमें उत्पन्न होते हैं, उन्हें 'कर्मभूमिज' कहते हैं। 2. अकर्मभूमिज - कृषिवाणिज्यादि जीवन निर्वाह के कार्यों और मोक्ष-सम्बन्धी अनुष्ठान नहीं होना अकर्म है, इसलिए जिस क्षेत्र में किसी भी समय उपर्युक्त लौकिक या लोकोत्तर कर्म नहीं होते, दस प्रकार के कल्पवृक्षों से वहाँ रहने वाले अपने जीवन का निर्वाह करते हैं, उसे अकर्मभूमिज कहते हैं। ये पाँच देव-कुरु, पाँच उत्तरकुरु, पाँच हेमवत, पाँच हैरण्यवत, पाँच हरिवास, पाँच रम्यकवास ये तीस अकर्मभूमियाँ हैं। जो इनमें उत्पन्न होते हैं, उन्हें 'अकर्मभूमिज' कहते हैं। 3. अन्तरद्वीपज - अन्तर शब्द मध्यवाचक है। अन्तर में अर्थात् लवण समुद्र के मध्य में जो द्वीप हैं, वे अन्तरद्वीप कहलाते हैं, उसमें निवास करने वाले मनुष्य अन्तरद्वीपज कहलाते हैं। जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र की सीमा पर स्थित हिमवान पर्वत के दोनों छोर पूर्व पश्चिम लवणसमुद्र में फैले हुए हैं। इसी प्रकार ऐरवत क्षेत्र की सीमा पर स्थित शिखरी पर्वत के दोनों छोर भी लवणसमुद्र में फैले हुए हैं। प्रत्येक छोर के दो भाग में विभाजित होने के कारण कुल मिलाकर दोनों पर्वतों के आठ भाग लवणसमुद्र में आये हुए हैं। प्रत्येक भाग पर सात-सात द्वीप हैं। इस प्रकार सब मिलाकर लवणसमुद्र के अन्तर्गत एकोरुक आदि 56 द्वीप हैं। उन द्वीपों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को 'अन्तरद्वीपज' कहते हैं। ये भी लौकिक और लोकोत्तर कर्म रहित होते हैं। कर्मभूमि के गर्भज मनुष्य ही संयम को ग्रहण करते हैं अर्थात् साधु बनते हैं, परन्तु अकर्मभूमिजगर्भज मनुष्य या अन्तरद्वीपजगर्भज मनुष्य में से कोई साधु नहीं बन सकता, इसलिए उन्हें मन:पर्यायज्ञान नहीं होता। 4. संख्यातवर्षायुष्यकमनुष्य मन:पर्यवज्ञान संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है। कर्मभूमिज मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - 75. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 75 76. कृषिवाणिज्यतपः संयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयो। कृष्यादिकर्मरहिताः कल्पपादपफलोपभोगप्रधाना भूमयः अकर्मभूमयः / अन्तरे लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपाः। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 102 77. युवाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापना सूत्र, पद 1 पृ. 103 से 105 का सार 78. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 76