________________ षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान [407] मनःपर्यवज्ञान की अर्हता अर्थात् अधिकारी या स्वामी मन:पर्यवज्ञान के स्वामी के विषय में विशेषावश्यकभाष्य में विशेष वर्णन प्राप्त नहीं होता है। मात्र इसमें इतना ही निर्देश किया है कि मन:पर्यवज्ञान गुणों के कारण चारित्रवान् को ही होता है। टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र ने अपने मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि ऋद्धि प्राप्त एवं क्षमादि विशिष्ट गुणों से युक्त चारित्रवाले को ही मनःपर्यवज्ञान होता है। इसके स्वामी के सम्बन्ध में विशेष कथन नंदीसूत्र में प्राप्त होता है। __ नंदीसूत्र में मन:पर्यवज्ञान के स्वामी या अधिकारी के लिए संक्षेप में नवविध पात्रता (शर्ते) आवश्यक मानी गई हैं यथा -1. मनुष्य 2. गर्भजमनुष्य 3. कर्मभूमिजमनुष्य 4. संख्यातवर्षायुष्यकमनुष्य 5. पर्याप्त 6. सम्यग्दृष्टि 7. संयत 8. अप्रमत्तसंयत 9. ऋद्धिप्राप्त संयत। उपर्युक्त नौ शर्तों में सर्वप्रथम शर्त में मनुष्य गति में ही मनःपर्यवज्ञान होता है, शेष नरक, तिर्यंच और देव गति में मन:पर्यवज्ञान नहीं होता है। मनुष्य गति में भी किस जीव (मनुष्य) को होता है, इसके लिए क्रम से शर्ते दी गई हैं, जिनको पूर्ण करने पर ही मनुष्य गति में रहे हुए उसी जीव (मनुष्य) को मन:पर्यवज्ञान होता है। इनका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है1. मनुष्य मन:पर्यायज्ञान मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है। अर्थात् मनुष्यों में मनुष्य पुरुष, मनुष्य स्त्री और मनुष्य नपुंसक को उत्पन्न होता है? अमनुष्यों को उत्पन्न नहीं होता अर्थात् मनुष्यगति के अलावा नरक, तिर्यंच और देवों को उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि इनमें सर्व-विरत साधु ही नहीं होते। मनःपर्यव के लिए विशिष्ट चारित्र की पालना आवश्यक है, और इन गति के जीवों में ऐसा चारित्र नहीं होता है। 2. गर्भजमनुष्य मन:पर्यवज्ञान मनुष्यों में भी गर्भजमनुष्यों को ही उत्पन्न होता है। मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - 1. सम्मूछिम मनुष्य - जो मनुष्य, माता-पिता के संयोग के बिना उत्पन्न होते हैं, उन्हें 'सम्मूच्छिम मनुष्य' कहते हैं। ये मनुष्य के उच्चार-पासवण (मलमूत्र) आदि चौदह स्थानों में उत्पन्न होते हैं। ये अंगुल के असंख्येय भाग की अवगाहना वाले, अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले, मनुष्य जैसी ही आकृति वाले और मन रहित होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों भी सम्मूर्छिम कहलाते हैं। 2. गर्भ-व्युत्क्रान्तिक मनुष्य - जो मनुष्य माता-पिता के पुद्गल संयोग से, माता के गर्भाशय में उत्पन्न होते हैं और माता के गर्भ से बाहर निकलते हैं तथा मन वाले होते हैं, उन्हें 'गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य' कहते हैं। गर्भज का अर्थ है - गर्भ से जिनकी व्युत्क्रान्ति - उत्पत्ति होती है, अथवा गर्भ से जिनका निष्क्रमण होता है, वे गर्भ-व्युत्क्रान्तिक (गर्भज) कहलाते हैं। 71. मणपज्जवणाणे णं भंते! किं मणुस्साणं उप्पज्जइ, अमणुस्साणं? गोयमा! मणुस्साणं, णो अमणुस्साणं। -नंदीसूत्र, पृ. 43 72. सवेदगा णं भंते, जहा सइंदिया, एवं इत्थिवेदगा वि, एवं पुरिसवेयगा। एवं नपुसंक वेयगा। भगवती सूत्र, श. 8, उद्दे. 2, पृ. 282 73. जइ मणुस्साणं किं संमुच्छि ममणुस्साणं, गब्भवक्कं तियमणुस्साणं? गोयमा! णो संमुच्छिममणुस्साणं, गम्भवक्कंतियमणुस्साणं उप्पज्जइ॥ - पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 74 74. गर्भे व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिका, अथवा गर्भाद् व्युत्क्रान्तिः-व्युत्क्रमणं निष्क्रमणं येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः / - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 102