SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [406] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन शास्त्रों का सामान्य ज्ञान रखने वाले विद्वान् की अपेक्षा एक शास्त्र का तलस्पर्शी ज्ञान धारण करने वाले विद्वान् के ज्ञान को विशुद्धतर कहा जाता है वैसे ही यहाँ भी विशुद्धि का संबंध व्यापक (विस्तृत) के संदर्भ में नहीं, लेकिन सूक्ष्मता के संदर्भ में समझना चाहिए। 3. द्रव्य - अवधिज्ञान जघन्य तेजोवर्गणा के उत्तरवर्ती तैजस के अयोग्य गुरुलघु द्रव्यों को जानता है, अथवा भाषा के पूर्ववर्ती, भाषा के अयोग्य अगुरुलघु द्रव्य को जानता है तथा उत्कृष्ट से परमाणु संख्य प्रदेशी, असंख्य प्रदेशी, अनन्त प्रदेशी, गुरुलघु, अगुरुलघु, औदारिक वर्गणा यावत् कर्म वर्गणा आदि तक समस्त रूपी पुद्गल द्रव्यों को जानता है। किन्तु मन:पर्यायज्ञान, जघन्य से भी और उत्कृष्ट से भी मनोवर्गणा के अगुरुलघु सूक्ष्म रूपी द्रव्य को ही जानता है। दोनों ज्ञान इन्द्रिय विषयक न होते हुए भी अवधिज्ञानी से मनःपर्यायज्ञानी को रूपी द्रव्यों का ज्ञान विशुद्धतर होता है अर्थात् अवधिज्ञान रूपी द्रव्य सामान्य के साथ संबंधित है और मन:पर्यायज्ञान मनोगत द्रव्यों से संबंधित है। 4. विषय - रूपी और पुद्गल से बंधे हुए अरूपी अर्थों को विषय करने वाला यह मन:पर्यवज्ञान उसी रूपी अर्थ को विषय करने वाले अवधिज्ञान से विषय की अपेक्षा विशिष्ट है, क्योंकि मन की पर्यायों को जितना अवधिज्ञानी जानता है उससे मनःपर्यवज्ञानी अधिक जानता है / / 5. क्षेत्र - अवधिज्ञान जघन्य से अंगुल के असंख्येय भाग को और उत्कृष्ट लोक एवं अलोक में लोक प्रमाण असंख्य खण्ड क्षेत्र को जानता है, किन्तु मनःपर्यायज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्येय भाग को और उत्कृष्ट मनुष्य क्षेत्र को ही जानता है। अतः मन:पर्यवज्ञान का क्षेत्र अवधिज्ञान की अपेक्षा से छोटा है। 6. काल - नंदीसूत्र के अनुसार अवधिज्ञानी अतीत, अनागत, असंख्यात उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी काल को जानता है। मनःपर्यायज्ञानी काल की अपेक्षा अतीत अनागत पल्योपम के असंख्यातवें भाग को ही विषय करता है। 7. भाव - अवधि की अपेक्षा से मन:पर्याय कम द्रव्यों को विषय करने से अधिक पर्यायों में प्रवर्तता है। 8. भव - अवधिज्ञान पूर्व भव से साथ में आ सकता है और परभव में भी साथ जा सकता है, जबकि मनःपर्यवज्ञान न तो पूर्वभव से साथ आता है और न ही परभव में साथ जाता है। (अ) 9. अज्ञान - अवधिज्ञान अज्ञान (विभंगज्ञान) में परिवर्तित हो सकता है, जबकि मन:पर्यायज्ञान अज्ञान में परिवर्तित नहीं होता है। 0 (ब) 10. शक्ति - अवधिज्ञानी और मन:पर्यवज्ञानी दोनों दूसरे के मन में चल रहे मानसिक विचारों को जान सकते हैं, लेकिन मनःपर्यवज्ञानी की यह विशेषता है कि वह दूसरे के चित्त में चलते हुए विचारों के आधार पर अनुमान करके वस्तु को जान सकता है, लेकिन अवधिज्ञानी नहीं जान सकता है। 11. प्रत्यय - अवधिज्ञान भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय होता है, जबकि मन:पर्यवज्ञान मात्र गुणप्रत्यय होता है। निष्कर्ष यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, विशुद्धतादि सभी अपेक्षाओं से मन:पर्यवज्ञान, अवधिज्ञान से प्रकृष्ट, विशुद्ध और भिन्न है। 65. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.25.1, पृ. 59 66. तत्त्वार्थसूत्र 1.26 67. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, भाग 4, पृ. 37 68. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 75, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 806, नंदीसूत्र 28,3369. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.25.1, पृ. 59 70 (अ). भगवती सूत्र, शतक 13, उद्देश्यक 1-2 70 (ब), भगवती सूत्र, शतक 8, उद्देश्यक 2
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy