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________________ षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान [409] 1. संख्येय वर्ष की आयुष्य वाले - यह एक पारिभाषिक शब्द है। जिनका आयुष्य जघन्य अन्तर्मुहर्त से लेकर उत्कृष्ट एक पूर्वकोटि (70,56,000,00,00,000 सत्तर लाख छप्पन सहस्र करोड) वर्ष का होता है, उन्हें 'संख्येय वर्ष की आयुष्य वाले' कहते हैं। ये ही सर्व विरत साधु हो सकते हैं। 2. अंसख्येय वर्ष की आयुष्य वाले - जिनका आयुष्य पूर्वकोटि वर्ष से एक समय भी अधिक होता है, उन्हें 'असंख्येय वर्ष की आयुष्य वाले' कहते हैं। ये सर्व विरति नहीं हो सकते हैं। 5. पर्याप्त मन:पर्यवज्ञान पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है। संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - 1. पर्याप्त - जो मनुष्य पर्याप्तनामकर्म के उदय से स्वयोग्य आहारादि पर्याप्तियों को पूर्ण करे वह पर्याप्त और 2. अपर्याप्त - जो मनुष्य अपर्याप्तनामकर्म के उदय से स्वयोग्य अहारादि पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं करे वह अपर्याप्त मनुष्य कहलाता है। पर्याप्ति - जीव की शक्ति-विशेष की पूर्णता पर्याप्ति कहलाती है। पर्याप्तियाँ छह प्रकार की होती ही हैं - 1. आहार 2. शरीर 3. इन्द्रिय 4. श्वासोच्छ्वास 5. भाषा और 6. मन। इन छहों को ग्रहण आदि करने की जिन्होंने पूर्ण शक्ति प्राप्त कर ली, उन्हें यहाँ 'पर्याप्त' कहा है तथा जिन्होंने पूरी शक्ति प्राप्त नहीं की या नहीं करेंगे, उन्हें 'अपर्याप्त' कहा है। जो मनुष्य पर्याप्त होते हैं, उनको ही मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। आहारादि छहों पर्याप्तियों का स्वरूप मलयगिरि (नंदीवृत्ति) के आधार पर युवाचार्य मधुकरमुनि ने नंदीसूत्र (पृ. 45) में दिया है। 6. सम्यग्दृष्टि मन:पर्यवज्ञान सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले गर्भज मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है। दृष्टि तीन प्रकार की होती है - 1. सम्यग्दृष्टि - जो जीव मोक्षाभिमुखी हो तथा जिनप्ररूपित तत्त्व के सन्मुख हो अर्थात् जिसकी तत्त्वों पर सम्यक् श्रद्धा हो अथवा जिसकी सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर दृढ़ आस्था हो, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। 2. मिथ्यादृष्टि - जिसकी जिनप्ररूपित तत्त्वों पर श्रद्धा नहीं हो और जो आत्मबोध से, सत्य से एवं मोक्ष से विमुख हो अथवा जिसकी कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर आस्था हो, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। मलयगिरि ने सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की परिभाषा इस प्रकार से दी है कि जिसकी जिनेश्वरों द्वारा प्रणीत वस्तु के प्रति दृष्टि विपरीत नहीं है, वह सम्यग्दृष्टि और जिसकी दृष्टि विपरीत है, वह मिथ्यादृष्टि है। 3. मिश्रदृष्टि - मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से जिनकी दृष्टि किसी पदार्थ का यथार्थ निर्णय अथवा निषेध करने में सक्षम नहीं हो, जो सत्य को न ग्रहण कर सकता हो, न त्याग कर सकता हो 79. संख्येयवर्षायुषः पूर्वकोट्यादि जीविनः असंख्येयवर्षायुषः पल्योपमादिजीविनः। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 104 80. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 76 81. पर्याप्तिः-आहारादि-पुद्गल ग्रहण परिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 104 82. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 77 83. सम्यक्-अविपरीता दृष्टि-जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्येषां ते सम्यग्दृष्टयः / मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयः / - मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ. 105
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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