________________ [378] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, किसी को नहीं। इस प्रकार मतिज्ञान से अवधिज्ञान के तीन स्थान अधिक है - अवेदक, अकषायी, मन:पर्यवज्ञान के पश्चात् / 142 अनाहारक और अपर्याप्त जीवों में पूर्वप्रतिपन्नक की अपेक्षा मतिज्ञान होता है। लेकिन प्रतिपद्यमान की अपेक्षा नहीं। लेकिन अप्रतिपाती सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य जब देव और नारकी में उत्पन्न होते हैं तो वे अवधिज्ञान की अपेक्षा प्रतिपद्यमान भी होते हैं, यह अवधिज्ञान का विशिष्ट स्थान है। कहा भी है - 'सम्मा सुर-नेरइयणाऽणाहारा जे य होति पज्जत्त त्ति' पूर्वप्रतिपन्न मतिज्ञान के समान है। इस प्रकार मतिज्ञान का जो पूर्वप्रतिपन्न कहा है वैसे ही अवधिज्ञान में भी पूर्वप्रतिपन्न जानना चाहिए। लेकिन विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इस नियम के अपवाद हैं, क्योंकि वे मतिज्ञान के पूर्वप्रतिपन्न है किन्तु अवधिज्ञान के न तो पूर्वप्रतिपन्न है और न ही प्रतिपद्यमान है। 43 15. ऋद्धि (लब्धि) द्वार एवं अवधिज्ञान अवधिज्ञान के वर्णन में अन्तिम लब्धि अर्थात् ऋद्धि द्वार का प्रसंगानुसार यहाँ वर्णन किया जाता है। जिनभद्रगणि ने इसका उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 779 से 804 तक किया है। लब्धि का अर्थ मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार - लब्धि का अर्थ है वे अतिशय, जो कर्मों के क्षय या क्षयोपशम आदि से उत्पन्न होते हैं, वे अपरिमित हैं। उनकी गणना संभव नहीं है।44 मलयगिरि ने कहा है कि अभ्यास से प्राप्त या गुणहेतुक शक्ति विशेष को लब्धि कहते हैं। 45 शुभ अध्यवसाय तथा उत्कृष्टतर संयम के आचरण से तत्-तत्कर्म का क्षय और क्षयोपशम होकर आत्मा में जो विशेष शक्ति उत्पन्न होती है, उसे लब्धि कहते हैं। 146 मुख्य रूप से लब्धियां 28 हैं, इनके अतिरिक्त जीवों के शुभ-शुभतर परिणाम विशेष के द्वारा अथवा असाधारण तप के प्रभाव से अनेकविध लब्धियाँ / ऋद्धियां विशेष जीवों को प्राप्त होती हैं।47 लब्धि का अधिकारी। विशेषावश्यकभाष्य में इस सम्बन्ध में विशेष उल्लेख नहीं हुआ है, लेकिन मलयगिरि ने नंदीवृत्ति में इस प्रकार का उल्लेख किया है - जो उत्तरोत्तर अपूर्व-अपूर्व अर्थ के प्रतिपादक विशिष्ट श्रुत का अवगाहन करते हैं और श्रुत के सामर्थ्य से तीव्र-तीव्रतर शुभ भावना का आरोहण करते हैं, उन्हें अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, कोष्ठादि बुद्धि, चारणलब्धि, वैक्रियलब्धि, सौषधिलब्धि आदि लब्धियाँ अप्रमत्तता के गुण से प्राप्त होती हैं तथा मानसिक, वाचिक और कायिक बल भी प्रादुर्भूत होते हैं। 448 सभी लब्धियाँ साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) में ही प्राप्त होती हैं।149 विशेषावश्यकभाष्य में वर्णित लब्धियाँ 1. आमर्ष औषधि 2. विपुडौषधि 3. श्लेष्मौषधि 4. मलौषधि 5. संभिन्नश्रोता 6. ऋजुमति 7. सौषधि 8. चारणविद्या 9. आशीविष 10. केवली 11. मन:पर्यवज्ञानी 12. पूर्वधर 13. अर्हन्त 14. चक्रवर्ती 15. बलदेव और 16. वासुदेव / 50 अवधिज्ञान को मिलाकर लब्धियों की संख्या सतरह होती है। 443. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 778 444. लब्धिरिति यः अतिशयः, स तावल्लब्धिरहितसामान्यजीवेभ्यो विशेष उच्चते। ते च विशेषाः कर्मक्षय क्षयोपशमादिवैचित्र्याज्जीवानामपरिमिता: संख्यातुमशक्याः। - विशेषावश्यकभाष्य बृहद्वृत्ति, पृ. 328 445. गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्यविशेषो लब्धिः। -मलयगिरि, आवश्यकवृत्ति, पृ. 79 446. जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग 6, पृ. 288 447. प्रवचन सारोद्धार भाग 2, पृ. 410 448. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 106 449. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3089 450. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 779 से 793