________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [377] ___ जो अवधि लोक में संबद्ध है, वह पुरुष में भी संबद्ध ही होता है। लोकान्त और पुरुष की अपेक्षा से अथवा लोक और अलोक के मध्य में भी अवधि संबद्ध होता है, उसमें भी चार भंग घटित होते हैं - 1. जो लोक प्रमाण अवधि है, वह पुरुष से संबद्ध है और लोकांत से भी संबद्ध है, 2. जो लोक देशवर्ती आभ्यन्तर अवधिज्ञान है, वह पुरुष से संबद्ध है लेकिन लोकांत से संबद्ध नहीं है, 3. जो लोकांत से संबद्ध और पुरुष से असंबद्ध होता है, यह भंग सम्भवित नहीं है, क्योंकि जो अवधि लोकांत से संबद्ध होता है वह पुरुष में अवश्य संबद्ध होता है, असंबद्ध नहीं होता है। इसलिए यह भंग संभव नहीं है। 4. बाह्य अवधि लोकांत और पुरुष दोनों से असंबद्ध है और जो अवधि अलोक से संबद्ध है वह अवधि पुरुष में सबंद्ध होता ही है। इस भंग का भी अभाव होता है। असम्बद्ध में संख्यात या असंख्यात योजनों का अन्तर भी हो सकता है। लोकप्रमाण अवधिज्ञान में सम्बद्ध, असम्बद्ध दोनों प्रकार हो सकते हैं, किन्तु लोक से अधिक अवधिज्ञान में असम्बद्ध ही होता है। 39 असम्बद्ध और स्पर्धक अवधि में अन्तर है असम्बद्ध में तो अपने पास वाला क्षेत्र नहीं देखता है। स्पर्धक अवधि में अपने पास वाला क्षेत्र देख सकता है। स्पर्धक अवधि का अर्थ बीच-बीच में क्षेत्र नहीं देखता है। 1. नारक, देव और तीर्थंकर को नियम से सम्बद्ध अवधि ही होता है। नारक देवों के कहीं पर भी असम्बद्ध और स्पर्धक अवधि नहीं माना है। 2. आनुगामिक साथ में गमन करने वाला 3. अबाह्य - जन्म से ही होने वाला। तिर्यंच तो बाह्य अवधिज्ञान वाले ही होते हैं क्योंकि उन्हें जन्म से नहीं होता है। स्पर्धक अवधि मात्र मनुष्य और तिर्यंच में ही होता है। 14. गति आदि द्वारों के अन्तर्गत अवधिज्ञान इस द्वार का नाम यद्यपि गति है, जिसके अन्तर्गत नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति का अन्तर्भाव होता है, किन्तु इस द्वार में 20 द्वारों का समावेश होता है, जिनको आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य'40 में निम्न प्रकार से कहा है - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयम, उपयोग, आहार, भाषक, प्रत्येक, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव्य और चरिम इन द्वारों पूर्वप्रतिपन्न (भूतकाल का ज्ञान) और प्रतिपद्यमान (वर्तमान के एक समय का ज्ञान) की अपेक्षा वर्णन किया है। उपर्युक्त गति आदि द्वारों का विस्तार से वर्णन पूर्व में मतिज्ञान'47 के प्रसंग किया गया है। उसी प्रकार यहाँ अवधिज्ञान में भी समझना चाहिए। लेकिन मतिज्ञान से अवधिज्ञान में जो विषेषताएं हैं, उनका उल्लेख जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य गाथा 776-778 तक किया है। जो निम्न प्रकार से हैं - जो जीव मतिज्ञान के अधिकारी होते हैं, वे अवधिज्ञान के भी अधिकारी होते हैं और उनके अलावा अन्य जीव भी अवधिज्ञान के अधिकारी (स्वामी) हैं। जैसेकि औपशमिक और क्षायिकश्रेणी की अवस्था में अवेदक और अकषायी को अवधिज्ञान प्राप्त होता है, ये मतिज्ञान से अतिरिक्त स्थान है। जिनको अवधिज्ञान नहीं होता है, उन मति-श्रुतज्ञानी और चारित्र वाले जीवों को अवधिज्ञान नहीं हुआ है, उनको पहले मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। उन मन:पर्यवज्ञानियों में से भी किसी को बाद में 439. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 772 440. गइ इंदिए य काय जोए वेए कसाय लेसा य।। सम्मत्त-णाण-दसण-संजममुवयोग-माहारे / भासग-परित्त-पज्जत्त-सुहुम-सण्णी य भव्व चरिमे य।। पुव्व पडिवन्नए या पडिवज्जते य मग्गणया। __ - आवश्यकनियुक्ति गाथा 14-15, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 409-410 441, द्रष्टव्य - सत्पदपरूपणादि नौ अनुयोग द्वारा मतिज्ञान की प्ररूपणा, पृ. 199-205