________________ [376] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन मनुष्य, तिर्यंच का अवधि एकक्षेत्र और अनेक क्षेत्र रूप होता है। 35 उपर्युक्त देश द्वार में उल्लिखित देश का अर्थ जिनभद्रगणि और मलधारी हेमचन्द्रसूरी बाह्यावधि करते हैं। जिसका उल्लेख धवलाटीकाकार ने 'एकदेश' शब्द से किया है। षट्खण्डागम में वर्णित एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र अवधिज्ञानी की तुलना अंतगत और मध्यगत से की जा सकती है। 13. क्षेत्र द्वार और अवधिज्ञान क्षेत्र द्वार के माध्यम से जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य गाथा 763-765 तक संबद्ध और असंबद्ध अवधिज्ञान का वर्णन करते हुए उनका क्षेत्र बताया है। जिनभद्रगणि के कथनानुसार - किसी अवधिज्ञानी में अवधिज्ञान प्रदीप में प्रभा की तरह संबद्ध होता है, वह ज्ञानी अपने अवस्थिति क्षेत्र से निरन्तर द्रष्टव्य वस्तु को जान लेता है। जिस प्रकार दूरी और अन्धकार के कारण प्रदीप की प्रभा विच्छिन्न हो जाती है, वैसे ही अवधिज्ञान अवधिज्ञानी में असंबद्ध होता है। 36 मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार जैसे दीपक में प्रभापटल संबद्ध होता है वैसे ही जिस जीव में अवधिज्ञान होता है वह संबद्ध अवधिज्ञान होता है अर्थात् जीवाधिष्ठित क्षेत्र से शुरू होकर जितने क्षेत्र का अवधिज्ञान हुआ है, वहाँ तक के क्षेत्र में रही हुई देखने योग्य रूपी वस्तुओं को व्यवधान रहित देखता है (प्रकाशित करता है) वह संबद्ध अवधिज्ञान है। दीपक की प्रभा पुरुष के अंतर (बाधा) से असंबद्ध होती है। वैसे ही कोई अवधिज्ञानी अधिक अंधकार होने पर उस क्षेत्र का उल्लंघन करके दूर रही हुए भींत (दीवार) आदि को जानता और देखता है, उसे असंबद्ध अवधिज्ञान कहते हैं। संबद्ध और असंबद्ध का क्षेत्र स्वावगाढ़ क्षेत्र में संलग्न होने वाला सम्बद्ध होता है। द्रव्य, क्षेत्र, खण्ड-खण्ड हो या पूरा संलग्न हो, किन्तु स्वयं से संलग्न न हो वह असम्बद्ध है। संबद्ध और असंबद्ध दोनों प्रकार का अवधिज्ञान क्षेत्र की दृष्टि से संख्यात अथवा असंख्यात योजन तक जानता है। 7 पुरुष आदि के अबाधा (शरीर और अवधिज्ञान से प्रकाशित क्षेत्र के बीच का अन्तर) का देह प्रमाण भी संख्यात या असंख्यात योजन है। यह अन्तर असंबद्ध अवधिज्ञान में ही होता है, संबद्ध अवधिज्ञान में नहीं। अवधिज्ञान लोक और अलोक में भी संबद्ध-असंबद्ध होता है। मलधारी हेमचन्द्र इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि क्षेत्र से संबद्ध और असंबद्ध अवधिज्ञान संख्यात अथवा असंख्यात योजन तक का होता है। असंबद्ध अवधिज्ञान में पुरुषादि अंतराल रूप बाधा (शरीर और अवधिज्ञान से प्रकाशित क्षेत्र के बीच का अन्तर) भी संख्यात अथवा असंख्यात योजन की होती है। यह जो अंतर है, वह असंबद्ध अवधिज्ञान में ही घटित होता है। संबद्ध अवधिज्ञान में नहीं होता है, क्योंकि संबद्ध अवधि में अंतर (बाधा) नहीं होता है। अवधिज्ञानी की देह से क्षेत्र का अन्तर संख्यात अथवा असंख्यात योजन का होता है। पुरुष और अबाधा की दृष्टि से अथवा इस असंबद्ध अवधिज्ञान में और अंतर (बाधा) के बीच में चार भंग घटित होते हैं - 1. संख्यात योजन का अंतर और संख्यात योजन का अवधिज्ञान, 2. संख्यात योजन का अंतर और असंख्यात योजन का अवधिज्ञान, 3. असंख्यात योजन का अंतर और संख्यात योजन का अवधिज्ञान, 4. असंख्यात योजन का अंतर और असंख्यात योजन का अवधिज्ञान 1438 435. षट्खण्डागम, पु. 13, पृ. 295 436. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 773 437. आवश्यकनियुक्ति गाथा 67 438. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 774