________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [379] आवश्यकनियुक्ति 51 में सीधा सतरह लब्धियों का वर्णन है। भाष्यकार ने अवधिज्ञान का विस्तृत वर्णन करने के बाद में शेष 16 लब्धियों का उल्लेख किया है, अतः भाष्यकार के अनुसार भी लब्धियों की संख्या सतरह ही है। 1. आमर्ष औषधि - आमर्ष अर्थात् स्पर्श। हस्तादि के स्पर्शमात्र से ही किसी भी रोग से पीडित रोगी के रोग को दूर करने में समर्थ लब्धि आमर्ष औषधि कहलाती है। यहाँ लब्धि और लब्धिमान का अभेद उपचार करने से लब्धिमान् साधु ही आमर्ष औषधि कहलाता है। यह आमर्ष औषधिलब्धि शरीर के किसी एक भाग अथवा पूरे शरीर में उत्पन्न हो सकती है। धवला के अनुसार तप के प्रभाव से जिनका स्पर्श समस्त औषधि के स्वरूप को प्राप्त हो गया है, ऐसी लब्धि आमर्ष औषधि होती है। 52 2. विपुडौषधि - मूत्र व पुरीष (विष्ठा) के अवयव विपुड् कहलाते हैं। ये दोनों अवयव जिसके औषधिपने को प्राप्त होते हैं, वह विपुडौषधि वाला कहलाता है। भाष्य की गाथा में 'मुत्त-पुरीसाण विपुसो विप्पो' पाठ है, जबकि प्रवचनसारोद्धार की गाथा 1496 में 'मुत्तपुरीसाणं विप्पुसो वावि (वयवा)' पाठ है तो साध्वी हेमप्रभाश्री453 का कहना है कि 'विप्पुसो वाऽवि' ऐसा पाठ अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होने से उपेक्षित है। यदि इस पाठ को स्वीकार किया जाए तो 'विपुड्' का अर्थ मूत्र-पुरीष अन्यत्र के ही अवयव। क्योंकि 'वाऽवि' में 'वा' शब्द समुच्चयार्थ है। 'अपि' शब्द एवकारार्थ है तथा क्रम की भिन्नता का सूचक है। किसी का कथन है कि 'विड्' का अर्थ विष्ठा और 'पत्ति' जिसके प्रश्रवण (मूत्र-पेशाब) होता है। जिस लब्धि के प्रभाव से मूत्र-पुरीष के अवयव सुगन्धित तथा स्व-पर का रोग शमन करने में समर्थ होते हैं, वह विपुडौषधि लब्धि है। धवला टीका में भी ऐसा ही वर्णन प्राप्त होता है। 54 / 3. श्लेष्मौषधि - जिस के प्रभाव से श्लेष्म (कफ) बहुत सुवासित होता है और स्वयं अथवा दूसरे के रोगों को दूर करने में उपयोगी होता है, वह श्लेष्मौषधि लब्धि कहलाती है। 4. मलौषधि - जिस लब्धि से कान, नाक, आंख, जीभ एवं शरीर का मैल बहुत सुवासित होता है और स्वयं अथवा दूसरे के रोगों को दूर करने में उपयोगी होता है, वह मलौषधि लब्धि कहलाती है। 5. संभिन्नश्रोता - जिस ऋद्धि से शरीर के सभी भागों से सुन सके अर्थात् जिसके प्रभाव से शरीर के सभी प्रदेशों में श्रवण-शक्ति उत्पन्न हो जाती है, वह संभिन्न श्रोतालब्धि कहलाती है अथवा पांच इन्द्रियों में से किसी भी एक इन्द्रिय से बाकी सभी इन्द्रियों के विषय को जान सकता है तो वह संभिन्नश्रोता कहलाता है अथवा श्रोत्रेन्द्रिय ही चक्षुइन्द्रिय का कार्य करने वाली होने से चक्षुरूपपने को प्राप्त करने वाली और चक्षु इन्द्रिय, श्रोत्रेन्द्रिय का कार्य करने वाली होने से श्रोत्ररूप प्रवृति को प्राप्त करती है, इसी प्रकार सभी इन्द्रियाँ परस्पर एक रूपता को प्राप्त करती हों तो वह संभिन्नश्रोता कहलाता है। ऐसी लब्धि वाला ही बारह योजन पर्यन्त विस्तार रूप और एक साथ बोलने वाली चक्रवर्ती की सेना के शब्दों को सुनता है। चक्रवर्ती की सेना के द्वारा एक साथ वाद्यमान अनके वाद्ययंत्रों की आवाज को सुनकर प्रत्येक वाद्ययंत्र के लक्षण और भेद से स्वरों को जो अलगअलग जानले और भिन्न-भिन्न मनुष्यों द्वारा बजाये गये शंख, भेरी आदि के बहुत से शब्द को जो एक साथ सुन ले, वे भी संभिन्नश्रोता कहलाते हैं। 451. आवश्यकनियुक्ति गाथा 68-70 452. षट्खण्डागम पु. 1, पृ. 96 453. प्रवचन सारोद्धार भाग 2, पृ. 410-411 454. षट्खण्डागम पु. 1, पृ. 96