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(1) बाह्य अवधिज्ञान का स्वरूप
आवश्यकनियुक्तिकार के अनुसार जिस स्थान पर अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उसी स्थान पर स्थित अवधिज्ञानी कुछ भी देख नहीं पाता है। उस उत्पत्ति स्थान से अंगुल, पृथक्त्व यावत् संख्यात योजन अथवा असंख्यात योजन दूर जाने पर ही देख पाता है, वह बाह्य अवधिज्ञान है
जिनभद्रगणि का अभिमत है कि जिस अवधिज्ञानी का अवधिज्ञान एक दिशा में होता है, बीच-बीच में अंतर वाला स्पर्धक अवधिज्ञान अथवा असंबद्ध अवधिज्ञान होता है, उसको बाह्य अवधि कहते हैं आवश्यकचूर्णिकार ने भी ऐसा ही उल्लेख करते हुए कहा है कि पूर्वदृष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कुछ हिस्से को जिस एक समय में नहीं देखता, उसी एक समय में कुछ अदृष्टपूर्व को देख लेता है । इस प्रकार एक ही समय में ज्ञान का उत्पाद और प्रतिपात होता है । 10
मलधारी हेमचन्द्र ने बाह्य अवधि का स्वरूप बताने से पूर्व प्राचीन भाष्यकार और टीकाकारों का मत प्रस्तुत किया है जिस अवधिज्ञानी का अवधिज्ञान एक दिशा में अथवा अनेक दिशा में होता है, लेकिन बीच-बीच में अंतर वाला स्पर्धक अवधिज्ञान होता है, उसे बाह्य अवधिज्ञान कहते हैं अथवा जिस अवधिज्ञानी का अवधिज्ञान सभी ओर से परिमण्डल (गोलाकार) आकार का होते हुए भी अंगुलादि क्षेत्र के व्यवधान से चारों ओर से असंबद्ध होता है, उसे बाह्य अवधिज्ञान कहते हैं।
अवधिज्ञानी अपने जिस ज्ञान से एक दिशा में स्थित पदार्थों को जानता है अथवा कुछ स्पर्धक विशुद्ध, कुछ स्पर्धक अविशुद्ध होने से अनेक दिशाओं में अन्तर सहित जानता है अथवा क्षेत्रीय व्यवधान के कारण असंबद्ध जानता है, वह बाह्यावधि कहलाता है। बाह्यावधि को देशावधि कहा जाता है।
बाह्य अवधि में एक समय में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी उत्पाद - प्रतिपात आदि की भजना समझनी चाहिए।
विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
प्रश्न- एक समय में उत्पाद - प्रतिपात कैसे होता है ?
उत्तर - किसी जीव को एक समय में बाह्य अवधि का उत्पाद हुआ और प्रथम समय में अल्प द्रव्यादि को जानने वाला बाह्य अवधि हुआ। बाद में विशुद्धि से किसी एक समय में अधिक द्रव्यादि पदार्थों को जानता है, यह एक समय में बाह्य अवधि में उत्पाद होता है। इसके विपरीत किसी एक समय में बाह्य अवधि से जितने द्रव्यादि को जान रहा था बाद में किसी समय विचारों की अशुद्धता से किसी एक समय में हीन द्रव्यादि पदार्थों को जानता है यह एक समय में बाह्य अवधि में प्रतिपात होता है। कभी-कभी एक समय में उत्पाद और प्रतिपात दोनों साथ में होते हैं, जैसे कि एक दिशा में जानने वाला बाह्य अवधि में आस-पास के क्षेत्र का संकोच रूप प्रतिपात होता है और उसी समय में आगे के भाग में वृद्धि रूप उत्पाद होता हैं। इसके विपरीत आगे के भाग में संकोच रूप प्रतिपात होता है जिससे आस-पास निरंतर रूप अवधि का उत्पाद होता है। इस प्रकार एक समय में उत्पाद प्रतिपात घटित होता है।
इसी प्रकार स्पर्धक अथवा अनेक दिशा वाले बाह्य अवधि में एक दिशा में उत्पाद होता है और दूसरी दिशा में प्रतिपात होता है तथा सभी दिशा के वलयाकार रूप बाह्य अवधि में भी जिस समय में एक देश में वलय के विस्तार की अधिकता से उत्पाद होता है उसी समय अन्य दिशा में वलय के संकोच रूप प्रतिपात होता है। इसलिए बाह्य अवधि में एक समय में उत्पाद आदि की भजना है।
409. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 749
सो
ओहिण्णाणं न किंचि पासइ । तं पुण ठाणं जाहे आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 62-63
408. आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 62
410. बहिरलंभो नाम जत्थ से ठियस्स ओहिण्णाणं समुप्पण्णं, तम्मि ठाणे अंतयिं एवं जाव संखिज्जेहिं वा, असंखिज्जेहिं वा जायणेहिं, ताहे पासइ 411. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 749 की बृहद्वृत्ति का भावार्थ