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पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
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नंदीसूत्र में प्रतिपात होने के हेतु का कोई वर्णन नहीं है, किन्तु हीयमान अवधिज्ञान के दो कारण बताए हैं - अप्रशस्त अध्यवसाय और संक्लेश। प्रतिपात के भी ये दो कारण हो सकते हैं 103
नंदीसूत्र में जो अंगुल का असंख्यातवां भाग दिया है, वह जघन्य अवधि जितना क्षेत्र हो सकता है। इसके कारण जीव जघन्य अवधि से गिर सकता है। नंदीसूत्र04 में जितने प्रकार प्रतिपाती अवधि के दिये हैं उन सब में उत्पत्ति के प्रथम समय से ही गिरना प्रारंभ हो यह जरूरी नहीं है। पहले कम हो कर फिर बढ़कर भी गिर सकता है। स्थानांग के पांचवें स्थान के पहले उद्देशक में अवधि से गिरने के पांच कारणों में 'तप्पढमयाए' बताया है। तदनुसार टीकाकार उत्पत्ति के प्रथम समय में से ही गिरना मानते हैं। किन्तु अन्तर्मुहूर्त में गिरना मानना अधिक उचित है। साथ ही वह प्रथम अन्तर्मुहूर्त में गिरे ही, ऐसा भी जरूरी नहीं है, क्योंकि प्रतिपाती अवधि का अर्थ है गिरने के स्वभाव वाला। गिरेगा ही ऐसा अर्थ नहीं है। जिस प्रकार सोपक्रमी जीव आयु उपक्रम लगना जरूरी नहीं है, उसी प्रकार प्रतिपाती का भी गिरना आवश्यक नहीं है। प्रतिपाती और अनानुगामिक में अंतर
प्रतिपाती तो नियम से नष्ट होता है और अनानुगामिक नष्ट होने के बाद पुनः हो सकता है।105 मलधारी हेमचन्द्र सूरि इस बात को इस प्रकार से कहते हैं कि - प्रतिपाती नष्ट होकर पुनः उत्पन्न हो सकता है, लेकिन यदि अनानुगामिक नष्ट हो गया है तो वह पुनः अपने उत्पत्ति क्षेत्र में आने पर उत्पन्न हो सकता है, अन्य जगह पर नहीं 106
आनुगामिक, अनानुगामिक और मिश्र के स्पर्धक तीव्र, मध्यम और मंद होते हैं। इनमें से आनुगामिक अप्रतिपाती स्पर्धक तीव्र होते हैं, अनानुगामिक और प्रतिपाती स्पर्धक मंद होते हैं और मिश्र स्पर्धक उभय स्वभाव वाले होते हैं। जो स्पर्धक निर्मल होते हैं उनको तीव्र कहते हैं और जो मलिन होते हैं उन्हें मंद कहते हैं। कुछ आचार्य प्रतिपाती उत्पाद द्वार में ही आनुगामिक आदि तीन का समावेश करते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है।107
विभंगज्ञान भी छह प्रकार का हो सकता है। अप्रतिपाती विभंग ज्ञान भी जीवन भर रहने वाला ही समझना चाहिए। विभंग से लोक के बहुत संख्यात भागों को (नवग्रैवेयक जितना) जाना जा सकता है। 8. प्रतिपात-उत्पाद द्वार के अन्तर्गत अवधिज्ञान
जिनभद्रगणि ने इसका उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य गाथा 748-762 तक किया है।
द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव संबंधी बाह्य विषय के अवधिज्ञान की प्राप्ति में एक समय में उत्पाद (उत्पन्न होना), प्रतिपात (नष्ट होना) और उत्पाद-प्रतिपात की भजना होती है। इसके माध्यम से भाष्यकार ने बाह्य अवधि और आभ्यंतर अवधि का वर्णन किया है। इस विषय का वर्णन मात्र आवश्यकनियुक्ति गाथा 62-63 और विशेषावश्यकभाष्य और उसकी टीकाओं में मिलता है। विशेषावश्यकभाष्य में इसका वर्णन विशेष रूप से है, जो कि अन्यत्र प्राप्त नहीं होता है। सामान्य रूप से जो अवधिज्ञान चारों ओर से नहीं देखता हो, या झरोखे की जाली में से निकले हुए दीपक के प्रकाश की भाँति त्रुटक (अन्तर) अवधि हो, उसे 'बाह्य अवधि' कहते हैं और जो अवधिज्ञान, सभी ओर की दिशाओं में संलग्नता रूप से सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता हो और अवधिज्ञान वाले के साथ वह प्रकाशित क्षेत्र त्रुटक अर्थात् व्यवधान रहित एवं सम्बन्धित हो, उसे 'आभ्यन्तर अवधिज्ञान' कहते हैं। 403. नंदीसूत्र, पृ. 39
404. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 40 405. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 740-741
406. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 745 407. विशेषावश्यकभाष्य 736, 739, 742,743