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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
वीरसेनाचार्य का अभिमत है कि प्रतिपाती अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल नष्ट हो जाता है। अप्रतिपाती अवधिज्ञान केवलज्ञान उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है। 98 अप्रतिपाती के विषय में हरिभद्रसूरि का भी यही मत है 399
मलयगिरि का मन्तव्य है कि जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने पर क्षयोपशम के अनुरूप कुछ काल तक अवस्थित रहकर बाद में प्रदीप की तरह पूर्ण रूप से बुझ जाता है, वह प्रतिपाति अवधिज्ञान है । जो ज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व नष्ट नहीं होता, वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है । 400
आवश्यकनिर्युक्ति, नंदीसूत्र, विशेषावश्यकभाष्य 1 और षट्खण्डागम 102 के अनुसार जब तक अवधिज्ञान लोक मर्यादित रहता है तब तक वह प्रतिपाती होता है । परंतु जब अलोक के एक भाग को भी स्पर्श करता है तो नियम से अप्रतिपाती होता है।
उपर्युक्त वर्णन में टीकाकारों ने अप्रतिपाती अवधिज्ञान का अर्थ केवलज्ञान की प्राप्ति के पूर्व तक रहना किया है, जो कि उचित नहीं है, क्योंकि 1. आगमानुसार अलोक में एक भी आकाश प्रदेश देखने की योग्यता वाले अवधिज्ञानी का अवधिज्ञान अप्रतिपाती होता है। आवश्यकनिर्युक्ति के अनुसार सम्पूर्ण लोक देखने वाला अवधिज्ञानी काल से देशोन पल्योपम जितना भूत-भविष्य जानता है । भगवतीसूत्र के पन्द्रह शतक के अनुसार सुमंगल अनगार ने अपने अवधिज्ञान से विमलवाहन राजा के 22 सागरोपम पहले के पूर्वभव (गोशालक के भव) को जान लेंगे। 22 सागरोपम जितने भूतकाल को जानने वाला अवधिज्ञान अनेक लोक जितने क्षेत्र को अलोक में भी जानने की क्षमता वाला है। अतः सुमंगल अनगार का अवधि नियम से अप्रतिपाती है। उनका यह अप्रतिपाती अवधिज्ञान जीवनपर्यन्त रहेगा। सुमंगल अनगार उस भव में मोक्ष नहीं जाकर सर्वार्थसिद्ध विमान में जायेंगे । अतः इससे सिद्ध होता है कि अप्रतिपाती अवधिज्ञान वाला उसी भव में मोक्ष जावे, यह आवश्यक नहीं है। जीव जिस भव में मोक्ष नहीं जाता है, उसको उस भव में केवलज्ञान भी नहीं होता यह सर्वसिद्ध ही है ।
2. प्रज्ञापनासूत्र के 33वें पद में नारक और देवों का अवधिज्ञान अप्रतिपाती बताया है । वहाँ भी अवधिज्ञान भव पर्यन्त रहता है, ऐसा ही अर्थ किया है। क्योंकि नारकी देवता से कोई भी जीव केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष नहीं जाता है। अतः इस प्रसंग में अप्रतिपाती अवधिज्ञान का अर्थ उस भव में नहीं गिरने वाला ही मानना पडेंगा। इसलिए ज्ञान के प्रसंग में एक ही शब्द के दो अर्थ करना उचित प्रतीत नहीं होता है। इसलिए अप्रतिपाती ज्ञान का अर्थ उस भव के अंतिम समय तक विद्यमान रहने वाला ज्ञान ऐसा मानना ही तर्क संगत है। अतः टीकाकारों ने अप्रतिपाती ज्ञान को केवलज्ञान की प्राप्ति की पूर्वावस्था तक विद्यमान रहना माना है, वह आगमानुसार नहीं है । यही अर्थ विपुलमति मनः पर्यवज्ञान के लिए भी समझना चाहिए। क्योंकि जिनको विपुलमति मनः पर्यवज्ञान होता है, आवश्यक नहीं की उनको उसी भव में केवलज्ञान हो ही ।
अप्रतिपाती में भी वर्धमान हीयमान हो सकता है, किन्तु उसका अप्रतिपातित्व नष्ट न हो उतना ही हीयमान हो सकता है। अप्रतिपाती अवधिज्ञान वाले का संहरण होने में बाधा नहीं है। परमावधि में विशुद्ध भाव होने से संहरण कम सम्भव है । अप्रतिपाती अवधिज्ञान अप्रतिसेवी में ही सम्भव है।
398. जमोहिणाणमुप्पणं संतं केवलणाणे समुप्पण्णे चेव विणस्सदि, अण्णहा ण विणस्यदि तमप्पडिवादी नाम |
399. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति पृ. 29
400. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 82
401. आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 52, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 699
षट्खण्डागम पु. 13, सू. 5.5.56
402. षट्खण्डागम पु. 13, 5.5.56, पृ. 295