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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
मलधारी हेमचन्द्र का कथन है कि जाली आदि की ओट में रहे हुए दीपक का प्रकाश जाली के छिद्रों से जिस प्रकार निकलता है वैसे ही अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से अवधिज्ञान आत्मप्रदेश से छिद्रों की तरह निकल कर रूपी पदार्थों को प्रकाशित करता है, इस प्रकार के आत्मप्रदेश स्पर्धक कहलाते हैं।389
मलयगिरि के अनुसार - जैसे झरोखे की जाली में से निकलने वाली दीपक की प्रभा का प्रतिनियत आकार होता है, वैसे ही स्पर्धक अवधिज्ञान की प्रभा का प्रतिनियत विच्छेद करते हैं।390 स्पर्धकों का स्थान
अवधिज्ञान के कुछ स्पर्धक पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होते हैं। कुछ आगे के आत्मप्रदेशों में, कुछ पृष्ठवर्ती आत्मप्रदेशों में, कुछ अधोभाग में, कुछ उपरितन भाग में तथा कुछ मध्यवर्ती आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होते हैं।91 स्पर्धकों की संख्या
यह स्पर्धक एक जीव की अपेक्षा संख्यात अथवा असंख्यात होते हैं। स्पर्धकों में उपयोग
जीव का जब एक स्पर्धक में उपयोग है तो नियम से वह सभी स्पर्धकों में उपयोगवान् होता है, जैसे कि जैसे एक चक्षु में उपयोग होता है तो दूसरे चक्षु से भी उपयोग होता है।
प्रश्न - यदि जीव का सभी स्पर्धकों में उपयोग होता है तो बहुत उपयोगों का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा?
उत्तर - ऐसा मानना उचित नहीं है, क्योंकि दोनों चक्षुओं का उपयोग होने पर भी स्वभाव से जीव के एक समय में एक ही वस्तु में उपयोग रहता है। वैसे ही बहुत स्पर्धकों में उपयोग होते हुये भी एक समय में एक स्पर्धक में ही उपयोग होता है। यथा यह हाथी है, दक्षिण की ओर घोड़े हैं, पीछे रथ है और आगे पैदल सैनिक हैं। इस प्रकार वस्तु विशेष में दोनों चक्षुओं के द्वारा बहुत उपयोग नहीं होकर सामान्य रूप से (हाथी, घोड़ा, रथ, सैनिक आदि देखने से) यह लश्कर है, ऐसा सामान्य रूप एक ही उपयोग होता है। लेकिन अलग-अलग उपयोग नहीं होते हैं।392 स्पर्धक के प्रकार
स्पर्धक तीन प्रकार के होते हैं यथा अनुगामी, अननुगामी और मिश्र। अवधिज्ञानी के जिस देश में रहते हुए जो स्पर्धक उत्पन्न हुए, वे स्पर्धक उस देश से अन्य स्थान पर जाते समय भी साथ में रहते हैं, तो वे आनुगामिक स्पर्धक कहलाते हैं। इसके विपरीत साथ में नहीं जाते वह अननुगामी स्पर्धक कहलाते हैं। कुछ स्पर्धक साथ में जाते हैं कुछ साथ में नहीं जाते हैं वे मिश्र स्पर्धक कहलाते हैं।
उपर्युक्त तीनों भेदों के पुनः तीन-तीन प्रकार होते हैं - प्रतिपाती, अप्रतिपाती और उभय (मिश्र)। जो स्पर्धक कुछ समय तक रहने के बाद अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं, वे प्रतिपाती स्पर्धक होते हैं। उसके विपरीत स्वभाव वाले अर्थात् नाश को प्राप्त नहीं होते हैं, वे अप्रतिपाती और कुछ नाश को प्राप्त हो एवं कुछ नहीं वे मिश्र (उभय) कहलाते हैं।93 389. अपवरकादिजालकान्तरस्थप्रदीपप्रभानिर्गम स्थानानीवाऽवधिज्ञानावरण -क्षयोपशम -जन्यान्यवधिज्ञाननिर्गमस्थानानीह
फड्डकान्युच्यन्ते। - मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 738, पृ. 308 390. स्पर्द्धकं च नामावधिज्ञानप्रभाया गवाक्षजालादि-द्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेद विशेषः ।
- मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 83 391. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 83
392. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 742 393. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 743