________________
पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
[365]
वृद्धि और हानि के कारण
नंदी के अनुसार प्रशस्त और विशुद्ध द्रव्यलेश्यायुक्त चिंतन और प्रशस्त चारित्र होने से उत्तरोत्तर चारित्र की विशुद्धि होती है अर्थात् मूलगुणों की वृद्धि होती है। यह वृद्धि अवधिज्ञान के वर्धमान होने में कारणभूत होती है। अप्रशस्त और अविशुद्ध द्रव्यलेश्यायुक्त चिंतन और अप्रशस्त चारित्र वाला श्रावक या साधु जब अशुभ विचारों से संक्लेश को प्राप्त होता है तथा उसके चारित्र में संक्लेश होता है अर्थात् मूलगुणों की हानि होती है, तब सब ओर से तथा सब प्रकार से अवधिज्ञान की पूर्व अवस्था से हानि होती है, यह हीयमान अवधिज्ञान है।383 1. तीव्र-मंद द्वार एवं अवधिज्ञान
जिनभद्रगणि ने इसका उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य गाथा 738-747 तक किया है। अवधिज्ञान की तीव्रता और मंदता का वर्णन विशेषावश्यकभाष्य में तीव्र और मंद द्वार में किया गया है। अवधिज्ञान की तीव्रता और मंदता का वर्णन विशेषावश्यकभाष्य और इनकी टीकाओं में ही प्राप्त होता है। अन्य ग्रन्थ और साहित्यों में नहीं मिलता है। इस प्रकार का उल्लेख जिनभद्रगणि का वैशिष्ट्य है। तीव्र-मंद-मिश्र का स्वरूप
तीव्र - अवधिज्ञानावरण के विशुद्ध क्षयोपशमजन्य स्पर्धक से उत्पन्न अवधिज्ञान निर्मल होने से तीव्र कहलाता है। मंद - अवधिज्ञानावरण के अशुद्ध क्षयोपशमजन्य स्पर्धक से उत्पन्न अवधिज्ञान मलिन होने से मंद कहलाता है। तीव्र-मंद (मिश्र) - अवधिज्ञानावरण के मध्यम क्षयोपशमजन्य स्पर्धक से उत्पन्न अवधिज्ञान विशुद्धाविशुद्ध होने से मिश्र (तीव्र-मंद) कहलाता है।84 स्पर्धक अविधज्ञान
इसका वर्णन आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य, नंदीसूत्र की चूर्णि और टीकाओं में प्राप्त होता है लेकिन दिगम्बर साहित्य में स्पर्धक अवधिज्ञान का वर्णन प्राप्त नहीं होता है।85 स्पर्धक का स्वरूप
जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने स्वरचित भाष्य की टीका में कहा है कि 'स्पर्द्धकमवधिविच्छेद विशेषः इति, तानि च एकजीवस्यासंख्येयानि संख्येयानि च भवन्ति।' अर्थात् अवधिज्ञान के विच्छेद विशेष को स्पर्द्धक कहते हैं। वे स्पर्द्धक एक जीव के संख्यात और असंख्यात भी हो सकते हैं।86
जिनभद्रगणि के कथनानुसार 'जालंतररत्थदीवप्पहोवमो फड्डगावही होइ।' जाली आदि से ढंके हुए दीपक की प्रभा का जिस प्रकार निगमन होता है वैसे ही स्पर्धक अवधि होता है।87
आवश्यकचूर्णिकार के मन्तव्यानुसार - एक दीपक जल रहा है। उस पर जालीदार ढक्कन लगा हुआ है। उससे प्रकाश की रश्मियाँ छिद्रों से बाहर आती हैं। वे रश्मियाँ बाह्य स्थित रूपी पदार्थों को प्रकाशित करती है। इसी प्रकार जीव के भी जिन आकाशप्रदेशों (आत्मप्रदेशों) में अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, उनमें अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। जिन आकाश प्रदेशों में अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं होता, उनमें अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। जीव के कुछ आकाश प्रदेशों में अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, कुछ में नहीं होता है। जिन आकाश प्रदेशों में अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उन्हें स्पर्धक कहा जाता है।88 383. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 35,39
384. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 740 एवं बृहद्वृत्ति 385. आवश्यकनियुक्ति गाथा 60, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 740, मलयगिरि नंदीवृत्ति पृ. 83 386, विशेषावश्यकभाष्य (स्वोपज्ञ) गाथा 734-736 387. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 740
388. आवश्यकनियुक्ति भाग 1, पृ. 61