SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन जिस अवधिज्ञान में विचारों के अप्रशस्त होने पर तथा उनमें मलिनता आते रहने पर एवं पर्यायों की अपेक्षा चारित्र घटता हुआ होने पर सभी ओर से हानि होती है, वह हीयमान अवधिज्ञान है।78 हरिभद्र के अनुसार जो अवधिज्ञान उत्पत्ति काल के साथ ही बुझती हुई अग्निज्वाला की तरह क्षीण होने लगता है, वह हीयमान अवधिज्ञान है।79 उमास्वाति के अनुसार जैसे ईंधन नहीं डालने से अग्नि मंद हो जाती है वैसे ही जितना अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है वह विशुद्धि के अभाव में धीरे-धीरे घटता है, वह हीयमान अवधिज्ञान है। जैसे अग्नि में ईधन डालने पर वह बढ़ती रहती है, वैसे ही विशुद्धि बढ़ने पर निरंतर अवधिज्ञान में वृद्धि होती रहती है, वह वर्धमान अवधिज्ञान है।280 षटखण्डागम में तो वर्धमान और हीयमान का नामोल्लेख ही हुआ है। इनका विशेष स्पष्टीकरण धवलाटीकाकार ने किया है कि जो अवधिज्ञान उत्पन्न हो कर शुक्लपक्ष के चन्द्रमंडल के समान प्रतिसमय अवस्थान के बिना जब तक अपने उत्कृष्ट विकल्प को प्राप्त होकर अगले समय में केवलज्ञान को उत्पन्न कर विनष्ट नहीं हो जाता है तब तक बढ़ता ही रहता है, वह वर्धमान अवधिज्ञान है। कृष्णपक्ष के चन्द्रमंडल के समान जो अवधिज्ञान उत्पन्न हो कर वृद्धि और अवस्थान के बिना निःशेष विनष्ट होने तक घटता ही जाता है वह हीयमान अवधिज्ञान है। इसका अंतर्भाव देशावधि में होता है। परमावधि और सर्वावधि में हानि नहीं होती है। इसलिए इनमें हीयमान समाविष्ट नहीं होता है। धवलाटीका में वर्धमान अवधिज्ञान के लक्षण के सम्बन्ध में दो बात विशेष हैं - (1) जो उत्पत्ति के समय से प्रति समय अवस्थान के बिना वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। (2) केवलज्ञान की प्राप्ति न हो वहाँ तक क्रमशः वृद्धि होती है।87 पूज्यपाद ने भी वर्धमान एवं हीयमान को लगभग इसी प्रकार समझाया है, लेकिन यह कहा गया है कि वर्द्धमान जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उससे असंख्य लोकप्रमाण जानने की योग्यता होने तक बढ़ता रहता है और हीयमान अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण जानने की योग्यता होने तक घटता चला जाता है। उक्त वर्णन के आधार से कह सकते है कि हीयमान में अवधिज्ञान नष्ट नहीं होता है।82 नंदीचूर्णि, हरिभद्रीया नंदीवृत्ति और मलयगिरि की नंदीवृत्ति में हीयमान अवधिज्ञान का विशेष वर्णन उपलब्ध नहीं होता है। 'सव्वाओ-समंता' विशेषणों के अनुसार हीयमान अवधिज्ञान चारों ओर से घटता है। यह एक प्रकार का सामान्य नियम है, किन्तु कभी एकादि दिशा में भी वह ज्ञान हीयमान हो सकता है। अवधि जितना है, उससे कम होना हीयमान है और पूरा नष्ट होना प्रतिपाती है। जब हीयमान होता है तब संक्लिश्यमान भाव होते हैं। किन्तु संक्लिश्यमान भावों में विभंग भी घट सकता है। नारक देवों का अवधिज्ञान क्षेत्र से हीयमान नहीं होता है, किन्तु द्रव्य और भाव से हीयमान हो सकता है। वर्धमान अवधिज्ञान के भेद में, क्षेत्र की अपेक्षा बढ़े उसे ही वर्धमान कहा है। किन्तु उतने ही क्षेत्र में द्रव्य-पर्याय की वृद्धि हो सकती है, उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है, लेकिन उसे भी एक अपेक्षा से वर्धमान कह सकते हैं। 378. हीयमाणयं ओहिणाणं अप्पसत्थेहिं अज्झवसायट्ठाणेहिं वट्टमाणस्स वट्टमाणचरित्तस्स संकिलिस्समाणस्स संकिलिस्समाण चरित्तस्स सव्वओ समंता ओही परिहायइ, सेत्तं हीयमाणयं ओहिणाणं। - नंदीसूत्र पृ. 39 379. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 23 380. तत्त्वार्थभाष्य 1.23 पृ. 98-99 381. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.56, पृ. 293 382. सर्वार्थसिद्धि 1.22 पृ.90
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy