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पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
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और हानि में विपर्यास नहीं होता है। विपर्यास का लक्षण है कि एक द्रव्यादि की हानि होने पर दूसरे द्रव्यादि की वृद्धि होती है अथवा एक द्रव्यादि की वृद्धि होने पर दूसरे द्रव्यादि की हानि होती है। लेकिन यहाँ पर ऐसा नहीं होता है। इसलिए इस गाथा के उत्तरार्द्ध की व्याख्या इस प्रकार से करनी चाहिए कि द्रव्यादि में एक की वृद्धि होने पर दूसरे की वृद्धि होती है, लेकिन हानि रूप विपर्यास नहीं होता है। इसी प्रकार द्रव्यादि में एक की हानि होने पर दूसरे की हानि होती है, लेकिन वृद्धि रूप विपर्यास नहीं होता है। जैसे कि 'काले चउण्ह वुड्डी'365 में काल की वृद्धि होने पर सबकी वृद्धि होती है। इसी प्रकार एक की वृद्धि होने पर दूसरे का अवस्थान होता है। 'कालो भइयव्वो खेत्तवुड्डीए'366 क्षेत्र की वृद्धि होने पर काल की वृद्धि में भजना है। द्रव्यादि एक की हानि होने पर दूसरों की हानि होती है। 'भागे भागो गुणणे गुणो य दव्वाइसंजोए 367 एक क्षेत्रादि के असंख्यातवें भाग वृद्धि होते ही दूसरे के भी भाग में वृद्धि होगी अथवा अवस्थान रहेगा, लेकिन गुणाकार वृद्धि नहीं होगी। जैसे कि काल में असंख्यात भाग की वृद्धि हुई तो क्षेत्र में भी असंख्यात भाग की ही वृद्धि होगी, लेकिन क्षेत्र में असंख्यातगुणा की वृद्धि नहीं होगी। इसी प्रकार एक में गुणाकार वृद्धि होती है तो दूसरे में भी गुणाकार वृद्धि ही होगी या अवस्थान होगा, लेकिन भाग वृद्धि नहीं होगी। जैसे काल असंख्यात गुणा बढ़ा हो तो क्षेत्र में भी असंख्यात गुणा की वृद्धि होगी, लेकिन असंख्यात भाग की वृद्धि नहीं होगी।
मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार उपुर्यक्त वर्णन में वृद्धि और हानि का एकांत नियम नहीं, क्योंकि क्षेत्रादि में भाग की वृद्धि होने पर द्रव्यादि में गुणाकार वृद्धि होना भी संभव है।69
जिनभद्रगणि के मन्तव्य का सारांश है कि क्षेत्र में चार प्रकार की, द्रव्य में दो प्रकार की और पर्याय में छह प्रकार की वृद्धि और हानि कही है। यह वृद्धि और हानि अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के आधीन होने से विचित्र है।70 वर्धमान-हीयमान
अवधिज्ञान के वर्धमान और हीयमान इन दोनों भेदों का आवश्यकनियुक्ति,371 विशेषावश्यकभाष्य। षट्खण्डागम73, नंदीसूत्र 4 तत्त्वार्थसूत्र75 और विशेषावश्यकभाष्य की बृहद्वृत्ति में वर्णन है।
आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार वर्धमान और हीयमान के स्वरूप का वर्णन उपर्युक्त वर्णित वृद्धि और हानि के समान ही है।
नंदीसूत्र के अनुसार - जिस अवधिज्ञान में विचारों के प्रशस्त होने पर तथा उनकी विशुद्धि होते रहने पर एवं पर्यायों की अपेक्षा चारित्र बढ़ता हुआ होने पर सभी ओर से वृद्धि होती है, वह वर्धमान अवधिज्ञान है।
365. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 617
366. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 617 367. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 733 368. मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशे० भाष्य, गाथा 733 का भावार्थ 369.प्रायेण चैतद् द्रष्टव्यम् क्षेत्रादेर्भागेन वृद्धावपि द्रव्यादेगुर्णकारेण वृद्धिसंभवादिति।-मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशे० भाष्य, गा. 733 370. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 734-737
371. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 59 372. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 728
373. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5-5-56, पु. 292 374. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र पृ. 30
375. तत्त्वार्थसूत्र 1.23 376. चलश्चावधिव्यादिविषयमंगीकृत्य वर्धमानको हीयमानको वा भवति।- मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशे०भाष्य, गाथा 728 377. से किं तं वड्डमाणयं ओहिणाणं? वड्डमाणयं ओहिणाणं पसत्थेसु अज्झव सायट्ठाणेसु वट्टमाणस्स वड्डमाणचरित्तस्स विसुज्झमाणस्स
विसुज्झमाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओहि वड्ड। - नंदीसूत्र पृ. 35