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[362] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
और संख्यात। इसी प्रकार से गुणवृद्धि भी तीन प्रकार की होती है - अनंतगुणा, असंख्यातगुणा और संख्यातगुणा। इसी प्रकार हानि भी तीन-तीन प्रकार की ही होती है। इस प्रकार यह वृद्धि और हानि कुल छह प्रकार की होती है यथा - 1. अनंत भागवृद्धि, 2. असंख्यात भागवृद्धि, 3. संख्यात भागवृद्धि, 4. संख्यात गुणावृद्धि, 5. असंख्यात गुणावृद्धि, 6. अनंत गुणावृद्धि। इसी तरह से हानि भी छह प्रकार की होती है। द्रव्यादि में वृद्धि/ हानि
आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार उपर्युक्त छह प्रकार की वृद्धि और हानि में से द्रव्य में दो, क्षेत्र व काल में चार और पर्याय (भाव) में छह प्रकार की होती है। प्रथम व
अंतिम (अनंत भागवृद्धि और अनंत गुणावृद्धि) इन दो भेदों को छोड़कर शेष चार भेद क्षेत्र और काल में वृद्धि और हानि के रूप में पाये जाते हैं। क्षेत्र और काल में अनंत भाग और अनंतगुण वृद्धि और हानि नहीं होती है, क्योंकि क्षेत्र और काल अनंत नहीं हैं। अवधिज्ञानी अवधि के उत्पन्न होने के प्रथम समय में जितना क्षेत्र देखते हैं उसके बाद प्रत्येक समय बढ़ते-बढ़ते कोई असंख्यात भाग जितना देखते हैं, कोई संख्यात भाग जितना, कोई संख्यात गुणा जितना और कोई असंख्यात गुणा जितना क्षेत्र देखते हैं। इसी प्रकार क्षेत्र में चार प्रकार की हानि भी जाननी चाहिए। क्षेत्र की तरह ही काल में भी उपर्युक्त चार प्रकार की वृद्धि और हानि होती है। मतान्तर
___ यहां जिनभद्रगणि और अकलंक दोनों में मतभेद है। अकलंक के अनुसार द्रव्य में भी वृद्धि और हानि चार प्रकार से होती है। जबकि जिनभद्रगणि ने द्रव्य में दो प्रकार की वृद्धि और हानि ही मानी है। जिनभद्रगणि द्वारा द्रव्य में दो प्रकार की वृद्धि और हानि मानने का कारण टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र ने स्पष्ट किया है, लेकिन अकलंक ने इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है। मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार अवधिज्ञानी जितना द्रव्य देखता है उससे पीछे कोई अनंतभाग अधिक देखते हैं, कोई अनंतगुणा अधिक देखते हैं, लेकिन वस्तु स्वभाव से असंख्यातादि भाग अधिक नहीं देखते हैं। ऐसे ही अनंत भाग कम और अनंतगुणा कम देखते हैं, किंतु वस्तु स्वभाव से असंख्यात भाग कम नहीं देखते हैं। पर्याय में उपर्युक्त छह ही प्रकार की वृद्धि और हानि पाई जाती है।63 द्रव्यादि का परस्पर संबंध
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का परस्पर वृद्धि और हानि की अपेक्षा से विचार करें तो द्रव्यादि एक की वृद्धि होने पर अन्य की वृद्धि और द्रव्यादि एक की हानि होने पर अन्य की हानि होती है। परंतु इससे विपरीत द्रव्यादि एक की हानि होने पर दूसरे की वृद्धि होती हो तथा द्रव्यादि एक की वृद्धि होने से दूसरे की हानि होती हो, प्रायः ऐसा नहीं होता हैं। 'वुड्डीए चिय वुड्डी हाणी हाणीए न उ विवज्जासो'364 में 'विवज्जासो' शब्द का अर्थ है - विपर्यास (विपरीत) अर्थात् द्रव्यादि की वृद्धि 360. आवश्यकनियुक्ति गाथा 59, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 728 361. मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 728 का भावार्थ 362. एवं द्रव्यमपि वर्धमानचतुर्विधया वड्या वर्धत । हानिरपि तथैव। - तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22, पृ.56 363. अवधिज्ञानीना यावन्ति द्रव्याण्युपलब्धानि प्रथम, ततः परं तेभ्योऽनन्तभागाधिकानि कश्चित पष्यति. अपरस्तु तेभ्योऽनन्तगुणवृद्धान्येव तानि पश्चति: न त्वसंख्यातभागाधिक्यादिना वृद्धानि वस्तुस्वाभाव्यात्।
- मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 728 364. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 733