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________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [361] जिस अवधि में जल की तरंगों की तरह परिणामों से वृद्धि और हानि अथवा उत्पत्ति और नाश होता रहे, वह अनवस्थित अवधिज्ञान है।56 उपर्युक्त वर्णन में अवस्थित अवधिज्ञान स्थिर रहे ऐसा उल्लेख है, लेकिन वृद्धि और हानि नहीं होती यह बात मूल टीका से स्पष्ट नहीं हो कर, अनवस्थित के वर्णन से स्पष्ट हो रही है। स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख पूज्यपाद ने किया है। उनके अनुसार अवस्थित अवधिज्ञान में वृद्धि और हानि का अभाव होता है अर्थात् अवस्थित अवधिज्ञान का कारण सम्यग्दर्शन आदि गुणों की अवस्थिति है एवं अनवस्थित अवधिज्ञान का कारण उक्त गुणों की वृद्धि और हानि है। अनवस्थित अवधिज्ञान के संदर्भ में तत्त्वार्थसूत्र में उल्लिखित उत्पत्ति और नाश एवं जन्म-जन्मान्तर में रहने का उल्लेख नहीं है। अकलंक, वीरसेनाचार्य आदि आचार्यों ने पूज्यपाद का ही अनुसरण किया है।58 प्रश्न - अवधिज्ञान के अवस्थित, अनवस्थित, प्रतिपाती और अप्रतिपाती इन चारों भेदों में क्या अन्तर है? उत्तर - जिसमें हानि या वृद्धि न हो, उसे अवस्थित अवधि कहते हैं। जिसमें हानि या वृद्धि होती हो उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं। जो अवधि दीपक बुझने की भांति सर्वथा एक साथ नष्ट हो जाय, उसे प्रतिपाती कहते हैं। जो अवधिज्ञान केवलज्ञान होने तक या जीवन-पर्यन्त रहे, उसे अप्रतिपाती कहा जाता है। अप्रतिपाती में वृद्धि आदि हो सकती है। नारकी, देवता के अवधि को हीयमान और वर्धमान नहीं बताकर अवस्थित अवधि बताया है। अतः जन्म से उस नारकी देवता के अवधि में हानि वृद्धि नहीं समझी जाती है। एक नैरयिक एवं देवता से दूसरे नैरयिक एवं देवता के अवधिज्ञान में अनन्तगुणा न्यूनता अधिकता बताई गई है। उसे बौद्धिक क्षमता की तीव्रता मन्दता के कारण समझा जा सकता है। क्षेत्र लगभग समान होते हुए भी द्रव्य एवं भावों में अनन्त गुणा हानि-वृद्धि समझी जाती है। 6. चल द्वार एवं अवधिज्ञान जिनभद्रगणि ने इसका उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य गाथा 728-732 तक किया है। इसका स्वरूप निम्न प्रकार से है - द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा अवधिज्ञान में वृद्धि और हानि होती है, उसे चल कहा जाता है।59 मूल में वृद्धि दो प्रकार की होती है भाग वृद्धि और गुण वृद्धि। किसी वस्तु के भाग प्रमाण में वृद्धि होना भागवृद्धि और गुण प्रमाण में वृद्धि होना गुणवृद्धि कहलाती है। जैसे कि 100 रूपये में दस भागवृद्धि (100/10=10) अर्थात् दस रूपये की वृद्धि होना भागवृद्धि है। 100 रूपये में 10 गुणा वृद्धि (100x10=1000) अर्थात् 1000 रूपये की वृद्धि होना गुणवृद्धि कहलाती है। भाग वृद्धि तीन प्रकार की है - अनंत, असंख्यात 356. अनवस्थितं हीयते वर्धते वर्धते हीयते च। प्रतिपतति चोत्पद्यतेचेति। पुनः पुनरूर्भिवत् अवस्थितं यावति क्षेत्रे उत्पन्न भवति ततो न प्रतिपतत्याकेवलप्राप्तेरवतिष्ठते, आभवक्षयाद् वा जात्पन्तरस्थापि भवति लिंगवत्। - तत्त्वार्थाधिगम् 1.23 357. इतरोऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणावस्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते, न हीयते नापि वर्धते लिंगवत् आ भवक्षयादा केवलज्ञानोत्पत्तेर्वा । अन्योऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणवृद्धिहानियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्धते यावदनेन वर्धितव्यं हीयते च यावदनेन हातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोर्मिवत। - सर्वार्थसिद्धि1.22 पृ. 90-91 358. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.4 पृ. 56, धवलाटीका पु. 13 5.5.56 पृ. 294 359. चलश्चावधिद्रव्यादि-विषयमंगीकृत्य -वर्धमानको हीयमानको वा भवति। - मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 728
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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