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विशेषावश्यक भाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
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जैसे नये पुराने आदि पर्याय हैं। श्वेतादि गुणों में आठ समय तक एवं पर्यायों में सात समय तक अवधिज्ञान का उपयोग अवस्थित रहता है क्योंकि द्रव्य स्थूल होने से उसमें अंतर्मुहूर्त तक उपयोग रहता है, गुण उससे सूक्ष्म होते हैं, उसमें आठ समय तक उपयोग रहता है और पर्याय उससे भी सूक्ष्म होने से उसमें सात समय तक उपयोग अवस्थित रहता है। इस प्रकार गुण और पर्याय का उत्तरोत्तर काल घटता जाता है क्योंकि गुण से पर्याय सूक्ष्म होते हैं। 354
विशिष्ट अवधिज्ञानी में एक समयादि की पर्यायों को जानने की क्षमता है, परन्तु उपयोग अन्तर्मुहूर्त का होने से उन पर्यायों को वर्तमान में नहीं जानकर उनको भूत भविष्य की पर्यायों की अवस्था रूप से जान सकता है। भगवान् महावीर के च्यवन पाठ में ऐसा ही उल्लेख प्राप्त होता है । जीव दो समयादि वाटे बहते रहेगा यह जान सकता है।
लब्धि की अपेक्षा
अवधिज्ञानावरण क्षयोपशम रूप को लब्धि कहते हैं। वह लब्धि द्रव्यादि उपयोग वाले के अथवा बिना उपयोग वाले के उस क्षेत्र में अथवा अन्य क्षेत्र में होती है। इस प्रकार क्षयोपशम रूप लब्धि 66 सागरोपम साधिक निरंतर अवस्थित रहती है जैसे कोई मनुष्य अवधिज्ञान सहित चार अनुत्तर विमान में से किसी विमान में देव के रूप में 33 सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न हुआ है, वहाँ से काल करके पुनः मनुष्य में आता है, पुनः चार अनुत्तर विमान में देव के रूप में 33 सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो देवभव के 33+ 33 = 66 सागरोपम और मनुष्य भव की स्थिति जितना अधिक काल मिलाकर कुल 66 सागरोपम साधिक काल होता है। इतने समय तक अवधिज्ञान साथ में रहता है, इसलिए लब्धिरूप अवधिज्ञान का अवस्थित काल 66 सागरोपम साधिक होता है । उपर्युक्त अवधिज्ञान के उपयोग और लब्धि का जो अवस्थान काल बताया है, वह उत्कृष्ट अवस्थान काल है, जघन्य अवस्थान काल तो एक समय का होता है। जघन्य अवस्थान किसके होता है ?
एक समय का जघन्य अवस्थान काल अवधिज्ञानी से गिरने की अपेक्षा अथवा अनुपयोग से मनुष्य और तियंच में होता है मनुष्य और तियंच में जघन्य अवधि होता है लेकिन देव और नारकी में जघन्य अवधिज्ञान नहीं होता है।
देव और नारक भव के अंतिम समय में सम्यक्त्व का लाभ होने पर विभंगज्ञान अवधिज्ञान में परिवर्तित होता है और भव का अंतिम समय पूर्ण होने से वह काल करने से अवधिज्ञान नष्ट हो जाता है। इस प्रकार देव और नारक में एक समय का अवधिज्ञान रहता है। इस अपेक्षा से देव नारकी में स्व क्षेत्र काल की अपेक्षा एक समय का अवस्थान घटित होता है । 355 मलधारी हेमचन्द्र कहते हैं कि उक्त कालमान उपयोग और लब्धि के विषय में है।
2. तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर अवस्थित का स्वरूप
जो अवधिज्ञान जितने क्षेत्र आदि में उत्पन्न हुआ है उतना ही क्षेत्रादि वृद्धि और हानि के बिना जब तक केवलज्ञान की प्राप्ति न हो जाए अथवा भव पूर्ण (आयुष्य पूर्ण होने तक) नहीं हो जाए तब तक अथवा मृत्यु के पश्चात् अन्य गति में भी साथ रहे तो उसे अवस्थित अवधिज्ञान कहा गया है। 353. अन्ये तु व्याचक्षते पर्यवाद्विविधाः गुणाः पर्यायाश्च । तत्र सहवर्तिनो गुणाः शुक्लादयः क्रमवर्तिनस्तु पर्याया नव पुराणादयः । मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 717 टीका, पृ. 303
354. मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 717 टीका, पृ. 303
355. आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 58, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 726-727