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पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
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अवस्थित है तथा जो प्रकट होने के पश्चात् एक जैसा नहीं रहता है वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। इस प्रकार नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में अवस्थित का स्वरूप भिन्न-भिन्न रूप से प्राप्त होता है। 1. आवश्यकनियुक्ति के आधार पर अवस्थित का स्वरूप
नियुक्ति के आधार से विशेषावश्यकभाष्य में अवस्थित का स्वरूप निम्न प्रकार से है - क्षेत्र की अपेक्षा
अवधिज्ञान जघन्य एक समय और उत्कृष्ट 33 सागरोपम तक एक ही क्षेत्र में अवस्थित रहता है। जैसेकि अनुत्तर विमानवासी देव उत्पत्ति के समय जिस क्षेत्र को अवगाहित करके रहता है, जब तक उस क्षेत्र में उस देव के भव का अंत अर्थात् आयुष्य पूर्ण न हो। अनुत्तर विमानवासी देव के भव की उत्कृष्ट स्थिति 33 सागरोपम है।46
आवश्यकचूर्णि के अनुसार किसी मनुष्य या तिर्यंच को यदि प्रथम समय में अवधिज्ञान उत्पन्न होता है और दूसरे समय में उसकी आयु क्षीण अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो जाती है तो इस प्रकार अवधिज्ञान एक समय तक ही अवस्थित रह पाता है। वैसे ही मिथ्यादृष्टि देव जब प्रथम समय में सम्यक्त्व प्राप्त करता है और दूसरे समय में उसकी भी आयु क्षीण हो जाती है, तब भी अवधिज्ञान का जघन्य अवस्थित काल एक समय का ही घटित होगा।47 उपयोग की अपेक्षा
आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य के कथन से पौद्गलिक द्रव्य में अवधिज्ञान का उपयोग उस क्षेत्र अथवा अन्य क्षेत्र में अंतर्मुहूर्त तक होता है, उसके उपरांत सामर्थ्य का अभाव होता है, जिसके कारण एक द्रव्य में अंतर्मुहूर्त से अधिक उपयोग नहीं होता है349 और उसी द्रव्य की पर्याय को जानते हुए एक पर्याय में अवधिज्ञान का उपयोग सात अथवा आठ समय तक अवस्थित रहता है, इससे अधिक नहीं।
आवश्यकचूर्णिकार के अनुसार जैसे कोई व्यक्ति अत्यन्त सूक्ष्म सूई के पार्श्वछिद्र में लम्बे समय तक निरन्तर नहीं देख सकता है। उसी प्रकार अवधिज्ञानी का द्रव्य में अन्तर्मुहूर्त से अधिक उपयोग नहीं होता है क्योंकि उससे आगे वह एकाग्र नहीं हो सकता है, इसलिए उस द्रव्य में अन्तर्मुहूर्त से अधिक अवस्थित नहीं रह सकता। पर्याय में जघन्य एक समय उत्कृष्ट सात-आठ समय रहने का कारण है कि द्रव्य की पर्यायों का ज्ञान तीव्रतर उपयोग (गहरी एकाग्रता) से होता है। वह अवधिज्ञान तीव्रतर उपयोग से होने वाली सघन एकाग्रता को सहन नहीं कर सकता। अतः वह उस पर्याय पर सात-आठ समयों से अधिक अवस्थित नहीं रह सकता है। 51 वस्तु जितनी-जितनी सूक्ष्म होती है, वह उपयोग का काल उतना-उतना कम होता जाता है। द्रव्य, गुण और पर्याय के लिए यह एक सामान्य नियम है।52 मतान्तर
कुछ आचार्यों का मत है कि पर्याय दो प्रकार की होती है - गुण और पर्याय। उसमें जो सहवर्ती होते हैं उन्हें गुण कहते हैं, जैसे श्वेत, रक्तादि गुण है एवं जो क्रमवर्ती होता है, वह पर्याय है। 346. आवश्यकनियुक्ति गाथा 57, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 720
347. आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 58 349. उपयोगतस्त्ववधे: सुर-नारक-पुद्गलादिके द्रव्ये द्रव्यविषयमुपयोगमाश्रित्य तत्राऽन्यत्र वा क्षेत्रे भिन्नमुहूर्तोऽन्तर्मुहूर्त-मेवाऽवस्थानं,
नं परत: सामर्थ्या भावादिति। - मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 717, पृ. 302 350. तत्रैव द्रव्ये ये पर्यवाः पर्याया धर्मास्तल्लाभे पर्यायात् पर्यायान्तरं च संचरतोऽवधेस्तदुपयोगे सप्ताऽष्टौ वा समयानऽवस्थानं, न
परतः। - मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 717, पृ. 302-303 351. आवश्यकचूर्णि भाग 1 पृ. 58
352. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 723