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[358] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
इस प्रकरण में वर्णित अवधिज्ञान के तीन भेदों एवं प्रभेदों को इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है
अवधिज्ञान
आनुगामिक
अनानुगामिक
मिश्र
अंतगत
मध्यगत
पुरंतः मार्गतः पार्श्वतः आत्म मध्यगत औदारिकशरीर तत्प्रद्योतित क्षेत्र 5. अवस्थित अवधिज्ञान (क्षेत्र-उपयोग-लब्धि से विचारणा)
जिनभद्रगणि ने इसका उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य गाथा 717-727 तक किया है। क्षेत्रादि, लब्धि और उपयोग की दृष्टि से अवधिज्ञान जघन्य और उत्कृष्ट कितने काल तक स्थिर (अवस्थित) है, इस दृष्टि से आवश्यकनियुक्ति के आधार पर विशेषावश्यकभाष्य में विचार किया गया है।42
एक द्रव्य अथवा एक पर्याय में लब्धि और उपयोग की अपेक्षा से अवधिज्ञान जितने समय तक स्थिर रहता है, वह अवस्थित अवधिज्ञान है। कोई अवधिज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् क्षेत्र आदि की अपेक्षा से बढ़ता है और कोई अवधिज्ञान क्षीण होता है अथवा नष्ट हो जाता है, यही चल अथवा अनवस्थित अवधिज्ञान है।43 अवस्थित के सम्बन्ध में अन्य ग्रंथों में प्राप्त चर्चा
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के भेदों में षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र में अवस्थित के भेद का उल्लेख है तथा अवस्थित के साथ अनवस्थित अवधिज्ञान का भी उल्लेख है। अनवस्थित का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य में नहीं है, किन्तु नंदीसूत्र और प्रज्ञापना सूत्र के अवधिपद (33 वां पद) में अवस्थित और अनवस्थित का उल्लेख प्राप्त होता है। इसका अर्थ यह हो सकता है कि अवस्थित और अनवस्थित की विचारणा दो प्रकार से विकसित हुई होगी।
1. नियुक्ति काल तक अवस्थित का अर्थ अवधिज्ञान कितने समय तक स्थिर रहता है, इस संदर्भ में था, परन्तु यहाँ अनवस्थित का उल्लेख नहीं था। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण अनवस्थित को स्वीकार करते हैं, लेकिन इसका उल्लेख चल द्वार में किया है, अवस्थित द्वार में नहीं 44 अत: जिनभद्रगणि भी नियुक्तिकार के मतानुसार स्पष्ट रूप से अनवस्थित अवधिज्ञान को स्वीकार नहीं किया है।
2. षट्खण्डागम में अनवस्थित अवधिज्ञान का उल्लेख हुआ है।45 किन्तु इसकी परिभाषा सर्वप्रथम तत्त्वार्थभाष्य में प्राप्त होती है। तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य में इन दोनों भेदों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है। कि जो अवधिज्ञान एक बार प्रकट होने के पश्चात् एक जैसा बना रहता है, वह 342. आवश्यकनियुक्ति गाथा 57, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 719 343. द्रव्यादिषु कियन्तं कालमप्रतिपतितः सन्नुपयोगतो लब्धिश्चाऽऽस्ते? इत्येवमवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः । तथा वर्धमानतया हीयमानतया
च चलोऽनवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः। - मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 577, पृ. 262 344. चलो हि पुनरनविस्थत इत्यर्थः । - विशेषावश्यकभाष्य (स्वापेज्ञ), गाथा 723, पृ. 140 345. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.56, पृ. 292