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पंचम अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
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अनानुगामिक के भेद
अनानुगामिक के भेदों का वर्णन निर्युक्ति, भाष्य, नंदी, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र में प्राप्त नही होते हैं । किन्तु धवलाटीका में इसके तीन भेदों का उल्लेख प्राप्त होता है ।
1. क्षेत्राननुगामी - जो क्षेत्रांतर में साथ नहीं जाता है, भवांतर में ही साथ जाता है, वह क्षेत्राननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है। 2. भवाननुगामी - जो भवांतर में साथ नहीं जाता है, क्षेत्रांतर में ही साथ जाता है वह भवाननुगामी अवधिज्ञान है। 3. क्षेत्र - भवाननुगामी - जो क्षेत्रांतर और भवांतर दोनों में साथ नहीं जाता, किंतु एक ही क्षेत्र और भव के साथ सम्बन्ध रखता है वह क्षेत्र - भवाननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है। 36
समीक्षा - धवलाटीका में आनुगामिक और अनानुगामिक के जो तीन भेद बताये हैं, उनमें से क्षेत्रानुगामी और भवाननुगामी लगभग एक जैसा ही है, वैसे ही भवानुगामी और क्षेत्राननुगामी लगभग एक जैसा ही है। लेकिन क्षेत्र - भवानुगामी में क्षेत्र और भव दोनों में अवधिज्ञान साथ रहता है और क्षेत्र - भवाननुगामी में क्षेत्र और भव दोनों में अवधिज्ञान साथ नहीं रहता है। इसलिए अनानुगामिक अवधिज्ञान का क्षेत्र-भवाननुगामी भेद ही ज्यादा युक्तिसंगत प्रतीत होता है। मिश्र अवधिज्ञान
उभयसहावो मीसो देसो जस्साणुजाइ नो अन्नो । कासइ गयस्स गच्छइ एगं उवहयम्मि जहच्छिं । । 337
जो आनुगामिक और अननुगामिक अर्थात् उभय स्वभाव वाला है, वह मिश्र अवधिज्ञान कहलाता है। एक आंख वाले पुरुष के समान, जिसके अवधिज्ञान का कोई भाग अन्यत्र जाते हुए साथ जाता है और कोई भाग साथ नहीं जाता है । वह मिश्र अवधिज्ञान है। ऐसे ही भाव मलधारी हेमचन्द्र ने भी व्यक्त किये हैं । 338 मिश्र अवधिज्ञान का भेद विशेष है, क्योंकि इसका उल्लेख मात्र आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 56 और विशेषावश्यकभाष्य गाथा 714 एवं 716 में ही प्राप्त होता है । षट्खण्डागम, नंदीसूत्र और तत्वार्थसूत्र आदि ग्रंथों में प्राप्त नहीं होता है। आनुगामिक- अनानुगामिक अवधिज्ञान के स्वामी
आवश्यकनिर्युक्ति और विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार आनुगामिक अवधिज्ञान देव, नरक, मनुष्य और तिर्यंच योनि में होता है । मलयगिरि कहते हैं कि मध्यगत आनुगामिक अवधिज्ञान देव, नरक और तीर्थंकरों में नियम से होता है। मनुष्यों के अंतगत और मध्यगत दो प्रकार का आनुगामिक हो सकता है। 40 तीर्थंकरों में अंतगत ही होता है। तिर्यंच में अंतगत अवधिज्ञान होता है। अनानुगामिक और मिश्र अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंच में ही होता है अर्थात् मनुष्य और तिर्यंच में तीनों प्रकार का अवधिज्ञान होता है।
जघन्य अवधिज्ञान में आनुगामिक, अनानुगामिक, अन्तगत और मध्यगत अवधि हो सकता है। जघन्य अवधि में वैमानिक के आनुगामिक और मध्यगत भेद ही होते हैं। लोक से अधिक अवधि होने पर पूर्व की अपेक्षा वह ज्ञानी सूक्ष्म द्रव्य देखने लगता है। इससे उन्हें लोक से अवधि अधिक होने का पता लग जाता है।
338. यस्स तूत्पन्नस्यावधेर्देषो व्रजति स्वामिना सहाऽन्यत्र, देषस्तु, प्रदेशान्तरचलितपुरुषस्योहपतैकलोचनवदन्यत्र न व्रजति, अ
मिश्र उच्चते । - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 714 की टीका
336. षट्खण्डागम, पु. 13 पृ. 294-295 339. आवश्यकनियुक्ति गाथा 56, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 714
337. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 716
340. मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ. 85-86