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[354] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
भगवती सूत्र में ज्ञान को इहभविक परभविक और तदुभयभविक कहा है। इस अपेक्षा से आनुगामिक अवधिज्ञान का भवानुगामी विकल्प सार्थक है।13 2. मध्यगत आनुगामिक अवधिज्ञान
आनुगामिक अवधिज्ञान के दूसरे भेद मध्यगत अवधिज्ञान का स्वरूप निम्न प्रकार से है।
नंदीसूत्र के अनुसार जिस प्रकार कोई पुरुष दीपिका, मशाल, मणि आदि को मस्तक पर रखकर चलता है तो उसे चारों ओर के पदार्थ दिखाई देते हैं, इसी प्रकार मध्यगत अवधिज्ञानी सब ओर के रूपी पदार्थों को जानता और देखता है।14
जिनदासगणि महत्तर का कथन है कि मध्यगत अवधिज्ञानी चारों ओर के पदार्थों को ग्रहण करता है। जैसे जीव स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा चारों ओर से स्पर्श करके विषय को जान लेता है, उसी प्रकार वह अवधिज्ञानी जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ चारों ओर के रूपी पदार्थों को अवधि से जानता-देखता है 15
मध्यगत (सव्वओ और समंता) में छहों दिशाओं की अपेक्षा है, किन्तु वह एक दिशा में भी बढ़ सकता है। अवधि क्षेत्र के मध्य में रहता है। मध्यगत एकदम मध्य में हो ऐसा जरूरी नहीं, क्योंकि देवों का अवधिज्ञान मध्यगत होते हुए भी वैमानिक देव ऊपर अपनी ध्वजा पताका तक ही देखते हैं तथा नीचे नारकी तक, अत: ऊपर कम और नीचे ज्यादा अवधिक्षेत्र देखते हैं। इसलिए एकदम मध्य होना आवश्यक नहीं है।
नंदीसूत्र के मूल पाठ में मध्यगत अनुगामी अवधिज्ञानी के दो विशेषण आए हैं - 'सव्वओ' और 'समंता'। 'सव्वओ' का अर्थ सभी दिशा और विदिशा में और 'समंता' का अर्थ है सभी आत्मप्रदेशों से। अर्थात् वह अवधिज्ञानी सभी दिशा-विदिशाओं में तथा सभी आत्म-प्रदेशों से जानता है। नंदीचूर्णि में यह भी कहा गया है कि वह अवधिज्ञानी विशुद्ध स्पर्धकों से संख्यात अथवा असंख्यात योजन पर्यंत स्पृष्ट क्षेत्र को जानता और देखता है। यहां तृतीया अर्थ में सप्तमी का प्रयोग हुआ है। अथवा 'सव्वओ' का अर्थ सभी दिशा-विदिशा से एवं सभी आत्मप्रदेश स्पर्धकों से जानने वाला होता है 17
नंदीचूर्णि में अन्य प्रकार से कहा गया है कि 'समंता' मे 'स' तो अवधिज्ञानी पुरुष के निर्देश के लिए है और 'मंता' ज्ञाता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है अर्थात् वह अवधि ज्ञाता सभी द्रव्यों को तुल्य (समान) रूप में जानने वाला या प्राप्त करने वाला होता है। 18 मलयगिरि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है |19 मध्यगत के प्रभेद
औदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्धकों की विशुद्धि से, सब आत्म-प्रदेशों की विशुद्धि से अथवा सब दिशाओं का ज्ञान मध्यगत अवधिज्ञान कहलाता है।20 अंतगत के समान इसके भी तीन भेद होते हैं - (अ) आत्म मध्यगत (ब) औदारिक शरीर मध्यगत (स) तत्प्रद्योतित क्षेत्र मध्यगत। 313. इहभविए भंते ! नाणे? परभविए नाणे, तदुभयभविए नाणे? गोयमा! इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि _ णाणे। - युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवतीसूत्र, शतक 1 उद्देशक 1, पृ. 36 314. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 32-33
315. आवश्यकचूर्णि, भाग 1, पृ. 56-57 316. 'सव्वओ' त्ति सव्वासु वि दिसिविदिसासु, समंता इति सव्वातप्पदेसेसु सव्वेसु वा विसुद्धफड्डगेसु वा। - नंदीचूर्णि पृ. 28 317. अहवा 'सव्वतो' त्ति सव्वासु दिसिविदिसासु सव्वातप्पदेसफड्डगेसु य। - नंदीचूर्णि पृ.28 318. 'स' इति निद्देसे अवधिपुरिसस्स 'मंता' इति णाता, अहवा समं दव्वादयो तुला, 'अत्ता' इति प्राप्ता इत्यर्थः। -नंदीचूर्णि पृ. 28 319. स मन्ता इत्यत्र स इत्यवधिज्ञानी परामृश्यते, मन्ता इति ज्ञाता शेषं तथैव। मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 85 320. मज्झगतं पुण ओरालियसरीरमझे फड्डगविसुद्धीतो सव्वातप्पदेसविसुद्धीतो वा सव्वदिसोवलंभत्तणतो मज्झगतो त्ति भण्णति।
- नंदीचूर्णि पृ. 27