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पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
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(अ) आत्म मध्यगत - स्पर्धकों की विशुद्धि से समस्त आत्मप्रदेशों के मध्य में होने वाला अर्थात् आत्मा के बीच के प्रदेशों में रहा हुआ अवधि आत्म-मध्यगत अवधिज्ञान कहलाता है। यह अवधिज्ञान स्पर्धकों के अनुसार होता है, इससे सभी दिशाओं के रूपी पदार्थों का ज्ञान होता है। इसका उपयोग सम्पूर्ण आत्मा में होता है तो भी आत्मा के मध्य में ही स्पर्धक का सद्भाव रहता है, इसलिए साक्षात् ज्ञान मध्य भाग से ही होता है।
(ब) औदारिक शरीर मध्यगत - सभी आत्म प्रदेशों में क्षयोपशम का सद्भाव होने पर भी औदारिक शरीर के मध्य भाग से ही उपलब्धि होती है अर्थात् जानता है, इसलिए इसे औदारिक शरीर मध्यगत अवधिज्ञान कहते हैं।
(स) तत्प्रद्योतित क्षेत्र मध्यगत - जिस अवधिज्ञान से सभी दिशाओं में जो क्षेत्र प्रकाशित किया जाता है, उस क्षेत्र के मध्य में इस ज्ञान की उपलब्धि होती है इसलिए वह तत्प्रद्योतित क्षेत्र मध्यगत कहलाता है। इस अवधिज्ञान का स्वामी अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के अंदर ही रहता है।21 अंतगत और मध्यगत में अंतर
नंदीसूत्र-22 में अंतगत अवधिज्ञान चारों दिशाओं में से किसी एक दिशा के क्षेत्र को प्रकाशित करता है। जिस जीव को यह अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह उसी दिशा में संख्यात असंख्यात योजन तक स्थित रूपी द्रव्यों को जानता और देखता है, लेकिन मध्यगत अवधिज्ञानी सभी दिशाओं विदिशाओं में संख्यात और असंख्यात योजन तक स्थित रूपी द्रव्यों को विशेष रूप से जानता और देखता है। अंतगत अनुगामी अवधिज्ञान बेट्री के प्रकाश की भांति और मध्यगत सिर पर रखे हुए दीपक के प्रकाश के समान हैं।
समीक्षा - षट्खण्डागम में जैसा स्वरूप एकदेश और अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान का वर्णित है वैसा ही स्वरूप अंतगत और मध्यगत का भी नंदीसूत्र, नंदीचूर्णि, हरिभद्र और मलयगिरि ने नंदीवृत्ति में प्राप्त होता है। जिस अवधिज्ञान का करण जीव के शरीर का एक देश होता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र के शरीर के सब अवयवों में रहता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है23 अनानुगामिक अवधिज्ञान
उमास्वाति के अनुसार - अनानुगामिक अवधिज्ञान को प्रश्नादेशिक पुरुष के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है। जैसे नैमित्तिक अथवा प्रश्नादेशिक पुरुष अपने नियत स्थान में ही प्रश्न का सही उत्तर दे सकता है। वैसे ही क्षेत्र से प्रतिबद्ध अवधिज्ञान अपने क्षेत्र में ही साक्षात् जान सकता है।24 पूज्यपाद 25 और अकलंक 26 ने भी यही परिभाषा दी है।
नंदीसूत्र में उल्लेख है कि जैसे एक स्थान पर रही हुई अग्नि का प्रकाश पुरुष के अन्यत्र जाने पर उसका अनुसरण नहीं करता है वैसे ही जो अवधिज्ञान उत्पत्ति स्थल से अन्यत्र गमन करते हुए पुरुष का अनुगमन नहीं करे उसको अनानुगामिक अवधि कहते हैं। इसके लिए अग्निकुंड का उदाहरण दिया है। 27 ऐसा ही वर्णन मलयगिरि और उपाध्याय यशोविजय28 ने भी किया है। 321. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 83-84
322. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र पृ. 33 सूत्र 11 323. जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एकदेसो करणं होदि तमोहिणाणमेगक्खेत्तं णाम। जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तं वज्जिय
सरीरसव्वावयवेसु वट्टदि तमणेयक्खेत्तं णाम। - षटखण्डागम (धवला) पुस्तक 13, सू. 5.5.56, पृ. 294 324. तत्रानानुगामिकं क्षेत्रे स्थितस्यात्पन्नं ततः प्रच्युतस्य प्रतिपतति, प्रश्नादेषपुरुषज्ञानवत्। - तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् 1.23 325. कश्चिन्नानुगच्छति तत्रैवातिपतति उन्मुखप्रश्नादेषिपुरूषवचनवत्। - सर्वार्थसिद्धि पृ. 90 326. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.4 पृ. 56
327. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 34 328, मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 89, जैनतर्क भाषा, पृ. 25