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पंचम अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
अंतगत के भेद
नंदीसूत्र के अनुसार अंतगत अवधि कई दिशाओं को प्रकाशित कर सकता है। इसलिए इसके तीन भेद हैं- (अ) पुरत: (ब) मार्गतः (स) पार्श्वत: 305
(अ) पुरतः अंतगत जिस अवधिज्ञान का स्वामी अपने मुख के आगे एक दिशा में रहे हुए रूपी द्रव्यों को जानता है, अन्य दिशा में रहे हुए रूपी पदार्थ को नहीं जानता है, उसे पुरतः अंतगत अवधिज्ञान कहते हैं, जैसे कि कोई व्यक्ति मशाल आदि लेकर चलता है तो वह आगे की वस्तुओं को देख सकता है, पीछे की नहीं। जिस अवधिज्ञान से अवधिज्ञानी चक्षुइन्द्रिय की तरह सामने के मूर्त पदार्थों को देखने में समर्थ होता है मलयगिरि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है
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(ब) मार्गतः अंतगत जिस प्रकार कोई पुरुष दीपिका, मशाल, मणि, ज्योति आदि को पीठ के पीछे करके चलता है, उसे पीठे पीछे के पदार्थ दिखाई देते हैं। इसी प्रकार जिस अवधिज्ञान का स्वामी अपनी पीठ के पीछे एक दिशा में रहे हुए रूपी द्रव्यों को जानता है, अन्य दिशा में रहे हुए रूपी पदार्थों को नहीं जानता है, उसे मार्गतः अंतगत अवधिज्ञान कहते हैं 0 मलयगिरि का भी यही अभिमत है
(स) पार्श्वतः अंतगत - जिस प्रकार कोई पुरुष दीपक, मणि आदि को पार्श्व भाग की ओर करके चलता है तो उससे उसी ओर की वस्तुएं प्रकाशित होती हैं। इसी प्रकार जिस अवधिज्ञान का स्वामी अपने दक्षिण पार्श्व (दाहिनी ओर ) या वामपार्श्व (बायीं ओर) की दिशा में रहे हुए रूपी द्रव्य को जान सके, अन्य दिशा में रहे हुए रूपी पदार्थ को नहीं जान सके, उसे पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान कहते हैं। पार्श्वतः अंतगत अवधिज्ञानी जाता श्रोत्रेन्द्रिय की तरह उभय पार्श्व में अवस्थित रूपी पदार्थों को जानता देखता है।" मलयगिरि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है।"
षट्खण्डागम और तत्वार्थसूत्र में आनुगामिक अवधिज्ञान के प्रभेदों का उल्लेख नहीं है। नंदीसूत्र और धवलाटीका में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। लेकिन दोनों में भिन्नता है, क्योंकि नंदी में वर्णित भेद अवधिज्ञान कौनसे भाग में उत्पन्न होता है और कौनसी दिशा को प्रकाशित करता है, इसकी स्पष्टता करता है, जबकि धवला में क्षेत्र और भव की दृष्टि से अवधिज्ञान के अनुसरण को स्पष्ट किया गया है, जो इस प्रकार है -
धवलाटीका में अन्तगत अवधिज्ञान के प्रकार -
1. क्षेत्रानुगामी - जो अवधिज्ञान एक क्षेत्र में उत्पन्न होकर स्वक्षेत्र और परक्षेत्र में जाने पर नष्ट नहीं होता है, वह क्षेत्रानुगामी अवधिज्ञान है।
2. भवानुगामी जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीव के साथ अन्य भव में जाता है, वह भवानुगामी अवधिज्ञान है।
3. क्षेत्र-भवानुगामी मिश्रित विकल्प अर्थात् जो भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्रों में तथा देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्य भव में भी साथ जाता है, वह क्षेत्र - भवानुगामी अवधिज्ञान है । 312 305. से किं तं अंतगयं? अंतगयं तिविहं पण्णत्तं तं जहा पुरओ अंतगयं, मग्गओ अंतगयं, पासतो अंतगयं । नंदीसूत्र, पृ. 31 306. आवश्यकचूर्णि, रतलाम, श्री ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, सन् 1928, भाग 1 पृ. 56 307, पुरतः अवधिज्ञानिनः स्वव्यपेक्षया अग्रभागेऽन्तगत पुरतो ऽन्तगतं मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 84
308. आवश्यकचूर्णि भाग 1 पृ. 56
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309. मार्गतः-पृष्ठतः अन्तगतं मार्गतोऽन्तगतं । मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 84 310. जत्थ जत्थ सो ओहिणाणी गच्छति तत्थ तत्थ सोइंदिएणमिव पासतो अवत्थिता जाणति पासति य । आवश्यकचूर्णि, भाग 1 पृ. 56
रूवावबद्धा अत्था ओहिणा
311. पार्श्वतो-द्वयोः पार्श्वयोरेकतरपार्श्वतो वाऽन्तगतं पार्श्वतोऽन्तगतं । मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 84 312. षट्खण्डागम (धवलाटीका) पु.13, पृ. 294