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[352] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन प्रकाशित करती हैं। ये छिद्र अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशमजन्य होते हैं इन्हीं का नाम स्पर्धक है। अवधिज्ञान के स्पर्धकों का विचित्र स्वभाव होता है, जैसे कि कुछेक आत्मा के अंतिम भाग में, कुछेक आगे, कुछेक पीछे, कुछेक ऊपर, कुछेक नीचे, कुछेक बीच में उत्पन्न होते हैं। ये स्पर्धक छिद्र एक जीव के संख्यात, असंख्यात तक हो सकते हैं। जो अवधिज्ञान आगे, पीछे, एक तरफ से संख्यात, असंख्यात योजनगत पदाथों को प्रकाशित करता है उसको अतंगत अवधिज्ञान कहते हैं 99
2. औदारिक शरीरान्त - सभी आत्म-प्रदेशों की विशुद्धि होने पर औदारिक शरीर से अवधिज्ञानी एक दिशा में जानते हैं अथवा औदारिक शरीर के किसी एक तरफ का विशेष क्षयोपशम होने से अवधिज्ञान उत्पन्न हो, उसे अंतगत अवधिज्ञान कहते हैं।00
जिनदासगणि, हरिभद्र और मलयगिरि के अनुसार सारे आत्म-प्रदेशों पर क्षयोपशमभाव प्राप्त होने पर भी औदारिक शरीर के एक भाग से ज्ञान होता है अर्थात् जो औदारिक शरीर के अंत में स्थित रहे हुए स्पर्धकों से जाना जाए वह औदारिक शरीरांत अवधिज्ञान है।
प्रश्न-जब सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों का क्षयोपशम होता है तो फिर एक ही दिशा के पदार्थों को देखते हैं, चारों दिशाओं के पदार्थों को क्यों नहीं?
उत्तर-मलयगिरि इसमें क्षयोपशम की विचित्रता को कारणभूत मानते हैं। अतः औदारिक शरीर की अपेक्षा अवधिज्ञानी किसी एक विवक्षित दिशा के सहारे उसी दिशा में स्थित रूपी पदार्थों को जानता देखता है।
3. क्षेत्रांत - एक दिशा में होने वाले उस अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के चरमान्त को जानना क्षेत्रान्त अवधिज्ञान है। उस क्षेत्र के अन्त में वर्तने से वह अन्तगत अवधिज्ञान है अथवा एक दिशा में उपलब्ध क्षेत्र पुरुष अंतगत होता है, उसे अंतगत अवधिज्ञान कहते हैं।302
जिनदासगणि, हरिभद्र और मलयगिरि के अनुसार यह अवधिज्ञान एक दिशा भावी होता है अतः उसके द्वारा जितना भी क्षेत्र प्रकाशित किया जाता है, उस प्रकाशित क्षेत्र में एक दिग्रूप विषय के अंत में यह व्यवस्थित होता है, इसलिए इसे अंतगत कहते हैं।03
हरिभद्र ने नंदीवृत्ति में अपना मत स्थापित किया है कि यहाँ पर आत्मप्रदेश के किनारे वाले को ही अंतगत कहते हैं क्योंकि जीव का उपयोग एक देश में ही होने से एक देश में ही दर्शन होता है।
औदारिक शरीर अंतगत में भी औदारिक शरीर के एक देश से ही देखे जाने से वह भी क्षेत्र अंतगत अवधिज्ञान ही है।04 जिनदासगणि और मलयगिरि ने ऐसा उल्लेख नहीं किया है। 299. तानि च विचित्ररूपाणि, तथाहि-कानिचित् पर्यन्तर्विर्त्तष्वात्मप्रदेशेषूत्पधते, तत्रापि कानिचित्पुरतः कानिचित्पृष्ठतः कानिचिदधोभागे
कानिचिदुपरितनभागे तथा कानिचिन्मध्यवर्तिष्वात्मप्रदेशेषु, तत्र यदा अन्तवर्तिष्वात्मप्रदेशेष्ववधिज्ञानमुपजायते तदा आत्मनोऽन्तेपर्यते स्थितमितिकृत्वा अन्तगतमित्युच्यते, तैरेव पर्यन्तवर्तिभिरामप्रदेशैः साक्षादवधिरूपेण ज्ञानेन ज्ञानात् च शेषैयति।
-मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 83 300. अहवा सव्वातप्पदेसविसुद्धेसुऽवि ओरालियसरीरगतेण एकदिसि पासणं गतं ति अंतगतं भण्णति। - नंदीचूर्णि पृ. 27 301.अथवा औदारिकशरीरस्यान्ते गतं-स्थितं अन्तगतंकयाचिदेकदिशोपलम्भात्, इदमपिस्पर्द्धकरूपमवधिज्ञानं अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां
क्षयोपशमभावेऽपि औदारिकशरीरान्तेनैकया दिशा यद्वशादुपलभ्यते तदप्यन्तगतम्। - मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 83-84 302.फुडतरमत्था भण्णति एगदिसावधिउवलद्धखेत्तातो सो अवधिपुरिसो अंतगतो त्ति जम्हा तम्हा अंतगतं भण्णति ।-नंदीचूर्णि पृ. 27 303. एकदिग्भाविना तेनावधिज्ञानेन यदुघोतितं क्षेत्रं तस्यान्ते वर्त्तते तदवधिज्ञानम्, अवधिज्ञानवतः तदन्ते वर्तमानत्वात् ततोऽन्ते
एकदिग्रूपस्यावधिज्ञानविषयस्य पर्यन्ते व्यवस्थितमन्तगतं। - मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 83 304. इह तच्चात्मप्रदेशांतगतमुच्यते सकलजीवोपयोगे सत्यपि साक्षादेकदेशेनैव दर्शनात्, औदारिकशरीरान्तगतमपि औदारिकशरीरैकदेशेनैव
दर्शनाच्चु, यथोक्तं क्षेत्रांतगतं त्ववधिमतस्तदंतवृत्तेरिति भावना। - हरिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ.27