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पंचम अध्याय
विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
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उपर्युक्त वर्णन का सारांश यह है कि जिस स्थान या जिस भव में किसी को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, यदि वह अवधिज्ञानी स्थानान्तर अथवा दूसरे भव में चला जाए तो भी वह अवधिज्ञान साथ में रहे तो, ऐसे अवधिज्ञान को आनुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं। श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों ने तो अनुगम का अर्थ साथ जाता है इतना ही किया, जबकि दिगम्बराचार्यों ने अनुगम का अर्थ परभव भी किया है।
इस प्रकार सभी पूर्वापर आचार्यों ने अनुगामी अवधिज्ञान को परिभाषित किया है। आवश्यकनिर्युक्ति और विशेषावश्यकभाष्य में आनुगामिक अवधिज्ञान के भेद-प्रभेद आदि का वर्णन नहीं है। नंदीसूत्र, नंदीचूर्णि आदि में अवधिज्ञान के भेद-प्रभेद का उल्लेख प्राप्त होता है जो कि निम्न प्रकार से है।
नंदीसूत्र में आनुगामिक अवधिज्ञान के दो भेद किए हैं- (1) अंतगत और (2) मध्यगत1295 1. अंतगत आनुगामिक अवधिज्ञान
जो अवधिज्ञान आत्मप्रदेशों के किसी एक छोर में विशिष्ट क्षयोपशम होने उत्पन्न होता है, वह अवधिज्ञान अंतगत अवधिज्ञान है । 2% अथवा पर्यंत में जो व्यवस्थित हो उसका नाम अंतगत आनुगामिक अवधिज्ञान है। अथवा कोने के अंत में प्राप्त हुए ज्ञान को अंतगत अवधिज्ञान कहते हैं । जिस प्रकार जल का किनारा (जल के किसी छोर में), वन का किनारा, पर्वत का किनारा इनमें अंत शब्द का प्रयोग पर्यंतवाची के रूप में हुआ है। वैसे ही अंतगत शब्द अंत शब्द के पर्यंतवाची के रूप में प्रयुक्त हुआ है न कि विनाशवाची के रूप में 1297
जिस प्रकार दीपक का प्रकाश छहों दिशाओं में फैलता है, किन्तु पांच दिशाओं को आवरित करने पर वह दिशा को ही प्रकाशित करेगा । जिस दिशा को आवरित नहीं किया गया वह दिशा ही दीपक से प्रकाशित होगी । उसी प्रकार अवधिज्ञानावरण के ऐसे क्षयोपशम को जो किसी एक दिशा के पदार्थों को प्रकाशित करे वह अन्तगत अविधज्ञान है । जैसे सभी आत्मप्रदेशों पर चक्षुदर्शनावरण का क्षयोपशम होता है, लेकिन चक्षुदर्शन का उपकरण जहाँ पर है वहीं से दिखता है, वैसे ही अन्तगत अवधिज्ञान के द्वारा भी जीव शरीर के उसी भाग से देखता है। जिस भाग के द्रव्य अवधिज्ञान में सहायक हैं। उबलते पानी के समान रुचक प्रदेशों को छोड़कर शेष सभी आत्म- प्रदेश घूमते रहते हैं। आत्मप्रदेश उन सहायक द्रव्यों के स्थान पर आते हैं, तो उन ही आत्मप्रदेशों से अवधिज्ञानी देखता है। अवधिज्ञान आत्मप्रत्यक्ष होते हुए भी इसमें द्रव्यादि पदार्थ साधक-बाधक बन सकते हैं। चूर्णिकार और टीकाकार ने अन्तगत अवधिज्ञान को तीन प्रकार से परिभाषित किया है अर्थात् इसके तीन भेद किये हैं ।
1. आत्मप्रदेशांत - औदारिक शरीर के अंत (छोर) में स्थित आत्मप्रदेशों से स्पर्धक (फड्डक) अवधिज्ञान होता है, जिससे एक दिशा में जाना जाता है । 298
जिनदासगणि, हरिभद्र और मलयगिरि के अनुसार उपर्युक्त स्वभाव जहाँ जैसे स्पर्धक होते हैं वहाँ वैसा ही अवधिज्ञान उत्पन्न होता है । यदि ये स्पर्धक आत्मप्रदेशों के अंत तक स्थित हैं तो पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों से ही साक्षात् अवधिज्ञान उत्पन्न होगा, आत्मा के समस्त प्रदेशों से नहीं अर्थात् आत्मा के एक भाग से ही अवधिज्ञान उत्पन्न होता है । इस प्रकार के आत्मप्रदेशों की अपेक्षा से हुए ज्ञान को अंतगत अवधिज्ञान कहते हैं। जैसे गवाक्ष आदि से दीपक की प्रभा मकान से बाहर निकलती हुई बाहर प्रकाश करती है उसी प्रकार अवधिज्ञान की किरणें स्पर्धकरूपी छिद्रों से बाह्य जगत् को 295. से किं आणुगामियं ओहिणाणं ? आणुगामियं ओहिणाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा - अंतगयं च मध्यगयं च । - नंदीसूत्र, पृ. 31 296. अन्तेगतं - आत्मप्रदेषानां पर्यन्ते स्थितमन्तगतं । मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 86
297. 'अंतगयं' ति जलंतं वर्णतं पव्वतंतं अवसिट्ठो अंतसद्दो। नंदीचूर्णि पृ. 27
298.आरोलियसरीरंते ठितं गतं ति एगट्टं तं च आतप्पदेशसफड्डगाबहि एगदिसोवलंभाओ य अंतगतमोहिणाणं भण्णति । - नंदीचूर्णि पृ. 27