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[350] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
पं. सुखलाल संघवी286 के अनुसार दिगम्बर साहित्य287 में अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान की उत्पत्ति के शरीरगत कारण उल्लिखित हैं, जो कि श्वेताम्बर ग्रंथों में नहीं हैं। उनके अनुसार अवधिज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन्हीं प्रदेशों से होती है जो कि शंख आदि शुभ चिह्न वाले अंगों में वर्तमान होते हैं तथा मन:पर्यवज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन प्रदेशों से होती है जिनका कि संबंध द्रव्य मन के साथ है अर्थात् द्रव्य मन का स्थान हृदय ही है। इसलिए हृदय भाग में स्थित आत्मा के प्रदेशों में ही मन:पर्यवज्ञान का क्षयोपशम होता है, परंतु शंख आदि शुभ चिह्नों का संभव सभी अंगों में हो सकता है, इस कारण अवधिज्ञान के क्षयोपशम की योग्यता किसी खास अंग के वर्तमान आत्म-प्रदेश में ही नहीं मानी जा सकती है। 4. आनुगामिक-अननुगामिक अवधिज्ञान
जिनभद्रगणि ने इसका उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य गाथा 714-716 तक किया है। इसका स्वरूप निम्न प्रकार से है - आनुगामिक अवधिज्ञान
उमास्वाति के अनुसार - जैसे सूर्य का प्रकाश सूर्य का अनुसरण करता है और घट की छाया घट का अनुसरण करती है, उसी प्रकार अवधिज्ञानी जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वैसे-वैसे अवधिज्ञान उसका अनुसरण करता है, उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं 288
जिनभद्रगणि का अभिमत है कि 'अणुगामिओऽणुगच्छइ गच्छंतं, लोयणं जहा पुरिसं' अर्थात् अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मप्रदेशों की विशुद्धि हो जाने पर जो ज्ञान एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हुए अपने स्वामी का आंख की तरह अनुगमन करे, वह आनुगामिक अवधिज्ञान है 89
जिनदासगणि कहते हैं कि जो गमन करने वाले मनुष्य का मर्यादापूर्वक अनुगमन करने वाला है वह अनुगामी कहलाता है। अनुगम जिस ज्ञान का प्रयोजन है, वह चक्षु के समान अनुगामी है। जिस प्रकार चक्षु व्यक्ति का अनुगमन करती है, उसी प्रकार वह अवधिज्ञान भी व्यक्ति का अनुगमन करता है। ऐसा ही उल्लेख हरिभद और मलयगिरि ने भी किया है।
अकलंक के वचनानुसार- जो अवधिज्ञान सूर्य के प्रकाश के समान पीछे-पीछे भवान्तर तक जाता है, वह अनुगामी अवधिज्ञान है।92
वीरसेचनाचार्य का कहना है कि जो अवधिज्ञान एक भव से दूसरे भव में उत्पन्न जीव के साथ जाता है, वह अनुगामी अवधिज्ञान है 93 ___ मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार - जो अवधिज्ञान आंखों के समान पुरुष के साथ रहता है वह आनुगामिक अवधिज्ञान कहलाता है। यह अवधि नारकी और देवों के होता है।94 285. आचार्य महाप्रज्ञ, नंदीसूत्र, पृ. 57-58
286. कर्मग्रन्थ भाग 1 के परिशिष्ट 287. गोम्मटसार(जीवकांड) भाग 2, गाथा 442
288. तत्त्वार्थभाष्य 1.23 289. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 715 290. अणुगामियं ति अणुगमणसीलो अणुगामितो तदावरणखयोवसमातप्पदेसविसुद्धगमणत्तातो लोयणं व। -नंदीचूर्णि पृ. 26 291. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति पृ. 26, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 81 292. भास्करप्रकाषवद्गच्छंतमनुगच्छति। - तत्तार्थराजवार्तिक, 1.22.4, पृ. 56 293. जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं जोवेण सह गच्छदि तमणुगामी णाणं। - षटखण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.56, पृ. 294 294. अनुगमनशील आनुगामुकः, यः समुत्पन्नोऽवधि: स्वस्वामिनं देषान्तरमभिव्रजन्तमनुगच्छति, लोचनवत्.. ..नारकारणां
तथा देवानां चेति। - विशेषावश्यकभाष्य गाथा 714 बृहद्वृत्ति पृ. 302