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पंचम अध्याय
विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
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अवधिज्ञान की उत्पत्ति होती है तो नीचे के गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभि के ऊपर शंख आदि शुभ आकार हो जाते हैं। वैसे ही अवधिज्ञानी के मिथ्यात्व का उदय आता है और विभंगज्ञानी बनता है तो शुभ संस्थान मिटकर अशुभ संस्थान में परिवर्तित हो जाते हैं।280 आवश्यकनिर्युक्ति और भाष्य ने अवधिज्ञान के संस्थानों में शरीरगत संस्थान का उल्लेख नहीं किया है। इस प्रकार दिगम्बर आचार्यों ने अवधिज्ञान के संस्थानों के बारे में स्पष्ट चर्चा की है तो श्वेताम्बर आचार्य लगभग इस विषय पर मौन रहे है । इसका कारण यह हो सकता है कि उनके सामने इस विषय की व्याख्या स्पष्ट नहीं रही होगी । अवधिज्ञान की किरणों का निर्गमन शरीर के माध्यम से होता है जैसे जालीदार ढक्कन के छिद्रों से दीपक का प्रकाश बाहर की ओर फैलता है वैसे ही अवधिज्ञान का प्रकाश शरीर के स्पर्धकों के माध्यम से बाहर की ओर फैलता है। ऐसा ही उल्लेख जिनदासगणि ने नंदीचूर्णि में भी किया है। जिनभद्रगणि आदि श्वेताम्बर आचार्यों ने अवधिज्ञान की प्रकाश किरणों के संस्थान का उल्लेख किया है, किन्तु उनके संस्थान का आधार शरीर में स्थित संस्थान होते हैं, इसका उल्लेख नहीं किया है। भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 2 में विभंगज्ञान के नाना संस्थानों का उल्लेख है जैसे कि ग्रामसंस्थित, नगर संस्थित यावत् सन्निवेश संस्थित, द्वीप संस्थित, समुद्र संस्थित, वर्ष संस्थित इत्यादि ।282 लेकिन अवधिज्ञान के संस्थानों का वहाँ कोई उल्लेख नहीं है। यदि आगमकारों को अवधिज्ञान के संस्थान इष्ट होते तो जिस प्रकार विभंगज्ञान के संस्थानों का उल्लेख किया है, उसी प्रकार अवधिज्ञान के संस्थानों का भी उल्लेख कर देते। श्वेताम्बराचार्यों को यदि श्रुतपरम्परा से अवधिज्ञान के संस्थानों की जानकारी प्राप्त होती अथव अवधिज्ञान के संस्थानों को मानने की कोई प्राचीन परम्परा होती तो किसी न किसी व्याख्याग्रन्थ में इसका उल्लेख अवश्य प्राप्त होता, लेकिन अभी तक ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है। जब तक इस विषय में पुष्टतर प्रमाण नहीं प्राप्त होते हैं तब तक तो श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार अवधिज्ञान के शरीरगत संस्थान नहीं मानना ही अधिक उचित प्रतीत होता है।
अवधिज्ञान के संस्थान के सम्बन्ध में दूसरी मान्यता आचार्य महाप्रज्ञ सम्पादित नंदीसूत्र में प्राप्त होती है। आचार्य महाप्रज्ञ ने अंतगत और मध्यगत अवधिज्ञान को चैतन्यकेन्द्रों के गमक के रूप में स्वीकार किया है।283 उन्होंने षट्खण्डागम 284 और धवला के उद्धरण देकर करण या चैतन्य केन्द्र को सिद्ध करने का प्रयास किया है। 'खेत्तो ताव अणेयसंठानसंठिदा सिरिवच्छ- कलस संख-सोवित्थणंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवंति।' इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि जीव के आत्म-प्रदेशों के क्षायोपशमिक विकार के आधार पर चैतन्य केन्द्रमय शरीर प्रदेशों के अनेक संस्थान बनते हैं । षट्खण्डागम और धवला में उनका उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत आगम (नंदी सूत्र) में उनके नामों का निर्देश नहीं है। अंतगत और मध्यगत के रूप में उनका स्पष्ट निर्देश है। भगवती सूत्र में प्राप्त विभंगज्ञान के संस्थानों के उल्लेख से यह अनुमान करना सहज है कि अवधिज्ञान से भी आगम साहित्य में था, किंतु वह किसी कारणवश विलुप्त हो गया pas 280. तिरिक्ख - मणुस्सविहंगणाणीणं णाहीए हेट्ठा सरडाविअसुहसंठाणाणि होंति ।
संबद्ध चैतन्य केन्द्रों का निर्देश
षट्खण्डागम (धवला), पु. 13, सूत्र 5.5.58, पृ. 298-299 281. इह फङ्गकानि अवधिज्ञाननिगमद्वाराणि अथवा गवाक्षजालादिव्यवहितप्रदीपप्रभावफकानीय फट्टकानि।
आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति, सूत्र 61 282. से किं तं विभंगनाणे ? विभंगनाणे अगेगविहे पण्णत्ते, तंजहा - गामसंठिए नगरसंठिए जाव संन्निवेससंठिए दीवसंठिए समुद्दसंठिए वाससंतिए वासहरतिर व्यक्ति धूमसंठिए हसलिए गठिए नरसटिए किन्नरसँटिए किंपुरिससतिए महोरगसलिए गंधव्वसंठिए उसभसंठिए पसु पसय-विहग वानरणाणासंठाणसंठिते पण्णते । - भगवती सूत्र भाग 2, श. 8, उद्दे. 2, पृ. 252-253 283. आचार्य महाप्रज्ञ, नंदीसूत्र, पृ. 57-58 284. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.58, पृ. 297