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[348] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
उपर्युक्त संस्थानों की अपेक्षा देव, नारक में अवधि सर्वकाल नियत होता है अर्थात् देव और नारकी के अवधिज्ञान के क्षेत्र का आकार हमेशा उपर्युक्त आकार का ही होता है। वह आकार दूसरे आकार में परिवर्तित नहीं होता है |74 तिर्यंच, मनुष्य में अवधिज्ञान का संस्थान
मनुष्य और तिर्यंच के अवधिज्ञान का संस्थान अनियत है अर्थात् जैसे स्वयंभूरमण में मत्स्य विभिन्न आकार वाले होते हैं, लेकिन वलयाकार वाला मत्स्य नहीं होता है। लेकिन मनुष्य और तिर्यंच के अवधिज्ञान का संस्थान वलयाकार सहित जितने संस्थान (आकार) के मत्स्य होते हैं उतने प्रकार का होता है अर्थात् मनुष्य और तिर्यंच के अविधज्ञान का संस्थान वलयाकार रूप अधिक होता है। जिस मनुष्य और तिर्यंच को जिस आकार (संस्थान) का अवधिज्ञान हुआ है, वह जीवन पर्यंत रह भी सकता है और बदल भी सकता है।75 अवधिज्ञान की दिशा में वृद्धि
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार भवनपति और वाणव्यंतर देव के अवधिज्ञान के क्षेत्र में वृद्धि होगी तो वह ऊर्ध्व दिशा में ही होगी, शेष वैमानिक देवों के अवधिज्ञान क्षेत्र में वृद्धि अधो दिशा में होती है। नारकी और ज्योतिषी के अवधिज्ञान का क्षेत्र तिरछा अधिक बढ़ता है। औदारिक शरीर वाले तिर्यंच और मनुष्य को विविध संस्थानों के रूप में विविध दिशाओं में अविधज्ञान होता है। जैसे कि किसी को ऊर्ध्व दिशा में अधिक होता है तो किसी को अधो दिशा में, किसी का तिरछी दिशा में और किसी किसी का दो-तीन-चारों दिशाओं में अधिक होता है। मलयगिरि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। प्रज्ञापना सूत्र के अवधिपद के तीसरे संस्थान द्वार में भी ऐसा ही उल्लेख है।
प्रश्न - अवधिज्ञान के क्षेत्र और संस्थान में क्या अन्तर है?
उत्तर - अवधिज्ञान का जैसेकि क्षेत्र परिमाण ज्ञेय की अपेक्षा से और संस्थान ज्ञान के आकार की अपेक्षा से बताया है।
___षटखण्डागम (धवलाटीका) में शरीर के संस्थान बताये हैं, यथा पृथ्वीकाय के शरीर का आकार मसूर के समान होता है। इसी प्रकार छह काय (शरीर) का आकार नियत है और श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों का भी नियत आकार आगमों में उपलब्ध होता है। किन्तु अवधिज्ञान का अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की विचित्रता से नियत आकार (संस्थान) नहीं है अर्थात् यह अनेक प्रकार के आकार का होता है। वे आकार (संस्थान) शरीरगत श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक आदि अनेक प्रकार के होते हैं 79 ये संस्थान शुभ होते हैं। एक जीव में एक, दो, तीन आदि शंखादि शुभ संस्थान संभव हैं। ये शुभ संस्थान तिर्यंच और मनुष्यों के नाभि के उपरिम भाग में ही होते हैं।
धवला में विभंगज्ञान के क्षेत्र संस्थानों का भी वर्णन मिलता है। तिर्यंच और मनुष्य विभंगज्ञानियों के नाभि के नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं। जब विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व आदि के फलस्वरूप 274. तप्राद्याकारसमानतया यद् नारकं-भवनपत्यादिदेवानावधेः संस्तानमुक्तम्, तदङ्गीकृत्य तेषामवधि: सर्वकालं नियतोऽवस्थित एव
भवति, न त्वन्याकारतया परिणमति। - विशेषावश्यकभाष्य, मलधारी हेमचन्द्र टीका गाथा 711, पृ. 301 275. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 712
276. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 713, मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ. 87-89 277. युवाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापनासूत्र भाग 3, पृ. 190-191 278. खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिता। जहा कायाणमिंदियाणं च पडिणियदं संठाणं तहा ओहिणाणस्स ण होदि, किन्तु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदजीवपदेसाणं करणी भूदसरीरपदेसा अणेयसंठाणसंठिया होति।
- षटखण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.57, पृ. 296 279. सिरिवच्छ-कलस-संख-सोवित्थ-णंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवंति। - षटखण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.58, पृ.297