________________
पंचम अध्याय
वाणव्यंतर देव के अवधिज्ञान का संस्थान
यह पटह (ढोल) के आकार का होता है। इसका आकार ऊपर एवं नीचे एक समान होता है। यह एक प्रकार का बाजा होता है । 269
ज्योतिषी देव के अवधिज्ञान का संस्थान
विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
यह झालर के आकार का होता है। नीचे और ऊपर चमड़े से बांधी हुई विस्तीर्ण वलय रूप झल्ली के आकार का अर्थात् झालर, जो एक प्रकार का बाजा होती है, इसे गोलाकार ढपली भी कहते हैं। अर्थात् लम्बाई-चौड़ाई अधिक और ऊँचाई (जाड़ाई) कम होती है
पहले देवलोक से 12वें देवलोक तक के देव के अवधिज्ञान का संस्थान
ऊर्ध्वमृदंग अर्थात् ऊर्ध्व आयत ऐसा मृदंग होता है जो नीचे से पटह ( चौड़ा) और ऊपर से संकडा होता है। ऊपर को उठा हुआ मृदंग जो नीचे विस्तीर्ण और ऊपर संक्षिप्त होता है
नवग्रैवेयक देव के अवधिज्ञान का संस्थान
I
यह फूलों की चंगेरी के समान होता है फूलों की चंगेरी, सूत से गुंथे हुए फूलों की शिखायुक्त चंगेरी। चंगेरी टोकरी या छबड़ी को भी कहते हैं अर्थात् नीचे बहुत चौड़ा फिर क्रमशः संकड़ा, फिर चौड़ा फिर संकड़ा अभिधान राजेन्द्र कोश में नवग्रैवेयक का अविधज्ञान सात शिखायुक्त पुष्प चंगेरी
के आकार का बताया है, किन्तु एक चंगेरी का मानना ज्यादा उचित है।
अनुत्तर विमान के
देवों के अवधिज्ञान का संस्थान
तप्र
(नारकी)
यह यवनालक अर्थात् कन्या की चोली (कंचुक) जैसा होता है । यवनालक अर्थात् सरकंचुआ अथवा गलकंचुआ। इसका आकार तुरकर्णी जो पहरेण परिधान पहनती है वैसा होता है। 273
पल्लक
पटह
(भवनपति) (वाणव्यंतर)
[347]
झालर (ज्योतिष)
उर्ध्वमृदंग (1 2 देवलोक )
फूलों की चंगेरी ( नवग्रैवेयक)
यवनालक
(अनुत्तर विमान)
चित्र: नारकी और देवता के अवधिज्ञान के संस्थान
269. पटहक आतोद्यविशेष: प्रतीत एव, स च नाऽत्यायतोऽध उपरि च समः । 270. उभयतो विस्तीर्णचर्मावनद्धमुखा मध्ये संकीर्णो कालक्षणेऽऽतोद्यविशेषो झरी। 271. मृदङ्गोऽप्यातोद्यमेव स चोर्ध्वायतोऽधोविस्तीर्ण उपरि च तनुकस्तदाकारोऽवधिः । 272. पुष्फेत्ति सूचनात् सूत्रमिति कृत्वा सप्रषिखा पुष्पभृता चंङ्गेरी पुष्पचङ्गेरी परिगृह्यते । 273. जवेत्ति यवो यवनालकः, स च कन्याचोलकोऽवगन्तव्यः । अयं च मरुमण्डलादिप्रसिद्धश्चरणकरूपेण कन्यापरिधानेन सह सीवितो भवति, येन परिधानं न खसति, कन्यानां चैष मस्तकसत्कपक्षेणाऽयं प्रक्षिप्यते, अयं चोर्ध्वः सरकंचुक इति व्यपदिश्यते ।
-269 से 273 तक के फूट नोट मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 706, पृ. 300 से उद्धृत है।