SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [342] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन चाहिए और असुरकुमार में ऊपर की ओर ऋतुविमान के ऊपरी भाग तक मानना चाहिए। नागकुमार आदि नौ कुमार का ऊपर की ओर सुमेरु पर्वत के शिखर तक और तिरछा असंख्यात हजार योजन का है। व्यंतर और ज्योतिषी देवों के ऊपर का क्षेत्र अपने विमान के ऊपरी भाग तक और तिरछा असंख्यात कोडाकोड़ी योजन का है।243 श्वेताम्बर परम्परा में भवनपति, वाणव्यंतर और ज्योतिषी के अवधिक्षेत्र के ऊँचे, नीचे और तिरछे क्षेत्र का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। केवल सामान्य रूप से कथन किया गया है, जैसे कि भाष्यकार के अनुसार आधा सागरोपम से कम आयुष्यवाला देव संख्यात योजन तक और उससे अधिक आयुष्य वाले देव असंख्यात योजन तक उत्कृष्ट क्षेत्र देखते है 44 मलयगिरि भी नंदीवृत्ति में असुरकुमार का अवधिप्रमाण असंख्यात द्वीप-समुद्र और नाग आदि नव भवनपति, व्यंतर और ज्योतिष देवों का अवधिप्रमाण संख्यात द्वीप समुद्र होने का उल्लेख करते हैं।45 वैमानिक देव के अवधिज्ञान का क्षेत्र जिनभद्र ने वैमानिक में जघन्य अवधि का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवां भाग बताया है।246 ऐसा ही उल्लेख प्रज्ञापनासूत्र में भी मिलता है।247 परंतु अंगुल का असंख्यातवां भाग जितना प्रमाण तो तिर्यंच और मनुष्यों के ही होता है। ऐसा दोनों जैन परंपराएं स्वीकार करती हैं।48 फिर यह विसंगति क्यों? इस विसंगति के सम्बन्ध में दो मान्यताएं प्राप्त होती हैं। प्रथम मान्यता - यह प्रमाण देवों में तो उत्पत्ति के समय ही प्राप्त होता है जो पूर्व भव के अवधिज्ञान की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग जितना अवधिज्ञान मनुष्य व तिर्यंच पंचेन्द्रिय में ही उत्पन्न हो सकता है, शेष दण्डकों में नहीं तथा स्वभाव से ही जघन्य अवधिज्ञान वाले मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय मरकर वैमानिक में ही उत्पन्न होते हैं, भवनपत्यादि देव में नहीं। जब अंगुल के असंख्यातवें भाग अवधिक्षेत्र वाले मनुष्य और तिर्यंचपंचेन्द्रिय मरकर वैमानिक में आते हैं तब उन्हें अपर्याप्त अवस्था के कुछ समय तक क्षेत्र की अपेक्षा अंगुल का असंख्यातवां भाग ही अवधिज्ञान होता है, बाद में भव प्रायोग्य अवधिज्ञान हो जाता है। भवनपत्यादि देवों में वैमानिक देवों जैसा विशाल अवधिज्ञान नहीं होने से अपर्याप्त अवस्था में ही देवभव जितना अवधिक्षेत्र हो जाता है। क्योंकि उनके जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र 25 योजन का ही बताया है। मलयगिरि ने भी जिनभद्रगणि का समर्थन किया है। 49 प्रज्ञापना सूत्र के पांचवें पद (जीवपर्याय) में मनुष्य की जघन्य अवधिज्ञान में अवगाहना त्रिस्थानपतित बताई है। अतः मनुष्य जघन्य अवधिज्ञान लेकर परभव में नहीं जाता है। वह अवधिज्ञान तिर्यंच पंचेन्द्रिय से लाया हुआ ही होता है। जीवाभिगम के वैमानिक उद्देशक की टीका में दूसरे समय में देवताओं के भवप्रायोग्य अवधि होना बताया है, लेकिन यह भी उचित नहीं है, क्योंकि उसमें कम से कम असंख्य समय तो लग ही जाते हैं। दूसरी मान्यता - श्रावक श्री दलपतरायजी कृत नवतत्त्वप्रश्नोत्तरी के अनुसार वैमानिक देव अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने सूक्ष्म द्रव्यों को जानने वाले होते हैं। किन्तु भवनपत्यादि देव नहीं जान सकते हैं, इसलिए वैमानिक में जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग और 243. तत्त्वार्थराजवार्त्तिक 1.21.6, पृ. 55 244. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 699 245. मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ. 86 246. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 695-697 247. युवाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापनासूत्र भाग 3, पृ. 187 248. आवश्यकनियुक्ति गाथा 53, षट्खण्डागम पु. 13, सूत्र 5.5.59, गाथा 17, पृ. 327 249. मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ. 87
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy