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पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
[335] 2. उत्कृष्ट देशावधि में संपूर्ण लोक को जानने वाला अर्थात् तिर्यंच और मनुष्य के उत्कृष्ट देशावधि का प्रमाण क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्य द्वीप समुद्र और काल की अपेक्षा से असंख्यात वर्ष है। द्रव्य की अपेक्षा तिर्यंच का अवधि प्रमाण असंख्यात तैजसशरीर द्रव्य वर्गणा है और मनुष्य का अवधि प्रमाण असंख्यात कार्मण द्रव्य वर्गणा है।27 तिर्यंचों का उत्कृष्ट अवधि का प्रमाण देशावधि के उत्कृष्ट प्रमाण से कम होता है। यह ऊपर के कथन से स्पष्ट होता है।
3. अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम) देशावधि में जघन्य और उत्कृष्ट के बीच में रहे हुए असंख्यात विकल्पों को जानना सम्मिलित है 208 परमावधि
धवलाटीका के अनुसार परम के दो अर्थ होते हैं - 1. असंख्यात लोक मात्र संयम विकल्प और 2. श्रेष्ठ। इस प्रकार परमावधि की दो परिभाषाएं प्राप्त होती हैं - 1. जिसकी मर्यादा असंख्यात लोक मात्र संयम के विकल्प है, वह परमावधि है। अथवा 2. जो ज्येष्ठ है अर्थात् जिसका विषय देशावधि की अपेक्षा बड़ा है, वह परमावधि है। जिस प्रकार मन:पर्यायज्ञान संयत मनुष्यों को ही प्राप्त होता है, वैसे ही परमावधि भी संयत मनुष्यों को ही होता है तथा परमावधि जिस भव में उत्पन्न होता है, उस भव में केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण होता है और वह अप्रतिपाति होता है:09 । इसी प्रकार परमावधि वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित (वृद्धि सहित), अनुगामी, अननुगामी भी होता है। परमावधि के भेद
देशावधि की तरह परमावधि के भी जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम रूप से तीन भेद होते हैं -
1. जघन्य परमावधि का क्षेत्र एकप्रदेश अधिक लोकप्रमाण, काल की अपेक्षा असंख्यात वर्ष और द्रव्य की अपेक्षा प्रदेशाधिक लोकाकाश प्रमाण और भाव अनन्तादि विकल्पवाला होता है।
2. उत्कृष्ट परमावधि - आवश्यकनियुक्ति के अनुसार परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र सभी अग्निकाय जीवों के तुल्य लोकालोक प्रमाण असंख्य लोक है। काल असंख्यात समय है और द्रव्य रूपी द्रव्य है।12 इस प्रमाण का उल्लेख षट्खण्डागम13 और तत्त्वार्थराजवार्तिक14 में भी है। इस प्रकार श्वेताम्बर (नियुक्ति) और दिगम्बर (षटखण्डागम) परम्परा में परमावधि का प्रमाण समान निरूपित है। लेकिन नियुक्तिकार के अनुसार यही अवधिज्ञान की चरम सीमा है। जबकि षटखण्डागम के अनुसार परमावधि के बाद अवधिज्ञान की सवोत्कृष्ट सीमा के रूप में सर्वावधि होता है।
3. अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम) परमावधि वह है, जो जघन्य और उत्कृष्ट के बीच में रहे हुए क्षेत्र को जानता है।15 207. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.5 पृ. 57 208. तत्र देशावधिस्त्रेधा जघन्य-उत्कृष्टः अजघन्योत्कृष्टश्चेति। तथा परमावधिरपि त्रिधा सर्वावधिरविकल्पत्वादेक एव। उत्सेधांगुलासंख्येयभागक्षेत्रो देशावधिर्जघन्यः । उत्कृष्टः कृत्स्नलोकः । तयोरंतराले संख्येय विकल्पः, अजघन्योत्कृष्टः ।
___ - तत्त्वार्थराजवार्तिक सूत्र 1.22.5 पृ. 56 209. षट्खण्डागम, पु. 9, सूत्र 4.1.3 पृ. 41 एवं पु.13, सूत्र 5.5.59, पृ. 323 210. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.5 पृ.57
211. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.5 पृ.57 212. आवश्यकनियुक्ति गाथा 44, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 631 213. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.59 गाथा 15 पृ. 323 214. उत्कृष्टपरमावधे: क्षेत्रं सलोकालोकप्रमाणा असंख्येया लोकाः। - तत्त्वार्थराजवार्तिक सूत्र 1.22.5 पृ. 57 215. परमावधिर्जघन्यः एकप्रदेशाधिकलोकक्षेत्रः । उत्कृष्टोऽसंख्येयलोकक्षेत्रः । अजघन्योत्कृष्टो मध्यमक्षेत्रः ।
- तत्त्वार्थराजवार्तिक सूत्र 1.22.5 पृ.56